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सोमवार, मार्च 26, 2012

माकपा-भाकपा के वैचारिक विचलन का फायदा आइसा को!

 यह लेख प्रथम प्रवक्ता पत्रिका के मार्च महीने के प्रथम अंक में प्रकाशित हो चुका है। अब आप तक आसानी से पहुंचाने के लिए इसे ब्लॉग पर पेश कर रहा हूं। आपकी टिप्पड़ियों का इंतजार रहेगा। 
   हाल ही पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों के बीच जेएनयू में भी छात्रसंघ के चुनाव संपन्न हुए। संयोग से उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों और जेएनयू दोनोंं हीं जगह अप्रत्याशित परिणाम देखने को मिले हैं। देश की राजनीतिक दशा और दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में अप्रत्याशित रूप से जहां सपा को स्पष्ट बहुमत मिला है, वहीं जेएनयू में आइसा ने ऐसी जीत हासिल की,जिसे अन्य छात्र संगठन आसानी से नहीं पचा पा रहे हैं। आइसा की इस जीत के मायने कई नजरिये से निकाले जा रहे हैं। यह जीत माकपा-भाकपा के छात्रसंगठन एसएफआई और एआईएसएफ के मुकाबले भाकपा(माले) का छात्र संगठन आइसा की सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का नतीजा बतायी जा रही है।
             बेशक यह सच्चाई की ओर जाने वाला एक विश्लेषण हो सकता है, लेकिन इसे एक एकमात्र ठोस विश्लेषण मान लेना समझदारी नहीं होगी। दरअसल जेएनयू में छात्र राजनीति की एक रवायत रही है। वहां के छात्र परिवर्तन की राजनीति में भरोसा करते हैं और इसी से असल मायने में लोकतंत्र को ताकत भी मिलती है। पिछले दो छात्रसंघीय चुनावों के परिणाम का विश्लेषण करें तो यह सवाल जरूर उठेगा कि लगातार दो बार छात्रों ने आइसा क ा ही चुनाव क्यों किया। इससे से भी बड़ा सवाल यह कि चार सालों के लंबे अंतराल के बाद छात्रों ने फिर से आइसा को ही क्यों चुना? दरअसल इसके कई कारण हैं। जेएनयू में लिंगदोह संहिता से परे छात्रसंघ चुनाव बहाल कराने की लड़ाई सभी संगठनों ने मिलकर लड़ी। लेकिन आइसा ने छात्रों के मिजाज में यह बात बैठा दी कि उसी की मेहनत से चुनाव बहाली हुई है। छात्रों को आइसा की इस बात पर यकीन करने में मुश्किल नहीं हुई। दरअसल छात्रों ने पश्चिम बंगाल और केरल में वामधारा की दो राजनीतिक पार्टियों माकपा और भाकपा की हुई हस्र देख ली है। राजनीति में डंवाडोल नेतृत्व का साथ शायद ही कोई देता है। जेएनयू में ऐसा ही हुआ। एसएफआई और एआईएसएफ से विदके उसके वोटर एनएसयूआई और एबीवीपी की ओर तो जा नहीं सकते थे। एबीवीपी और एनएसयूआई ने खुद को विकल्प के रूप में खड़ा नहीं कर पाये। इसलिए इन वोटरों को एक मात्र विकल्प के रूप में आईसा दिखा,उन्होंने इसका चुनाव किया। कहा जा रहा है कि आइसा का चुनाव करने वाले छात्रों ने एसएफआई-एआईएसएफ को सरकारी वामपंथ समझकर और नव उदारवादी नीतियों के परोक्ष समर्थन के आरोप में इन्हें नकार दिया। लेकिन ऐसा नहीं है,लोकतंत्र में जनसरोकार के मुद्दे पर राजनीतिक-वैचारिक सामंजस्य की जरूरत को जेएनयू के छात्र जानते हैं। यदि माकपा-भाकपा केंद्र में भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस का साथ देती हैं,और महंगाई,भ्रष्टाचार और कारपोरेट नीतियों को रोकने के मुद्दे पर भाजपा तक के साथ खड़ी होती हैं,तो यह वक्त की जरूरत है। इसे सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के साथ समझौता नहीं समझा जाना चाहिए। इस बात को जेएनयू के प्रबुद्ध छात्र समझते हैं। जेएनयू में एसएफआई के नेतृत्व का कमजोर पड़ जाना आइसा के लिए फायदेमंद साबित हुआ। फ्लोटिंग वोटर्स ने महंगाई,घोटाने और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेसी छात्रसंगठन एनएसयूआई को नकार दिया। एबीवीपी को जेएनयू में भाजपा का छात्रसंगठन होने का नुकसान उठाना पड़ता हे। चार सालों में पैदा हुए एक गैप में जगह बनाने का मौका एबीवीपी को मिला था,लेकिन एक मजबूत विपक्ष देने में विफल पार्टी के छात्रसंगठन से छात्र खुश नहीं दिखे। इसका फायदा आईसा को मिला। दूसरा कारण, जैसे यूपी में मुंख की खाने के बाद कांग्रेस कह रही है कि राहुल गांधी ने अपनी जी तोड़ मेहनत से जो हवा बनायी,संगठन और प्रत्याशी उसे कैश नहीं करा पाये। ठिक ऐसे ही जेएनयू में भी एसएफआई और एआईएसएफ ने ओबीसी आरक्षण,एकेडमिक छात्रहितों की लड़ाई लड़ी,माहौल भी बनाया, लेकिन इसे वोट  में नहीं बदल पाये। प्रचार के दौरान हवा बनाने के लिए ही सही, अन्य संगठन यह कहने लगे थे कि एसएफआई का नेतृत्व कमजोर पड़ रहा है। इस बात ने भी छात्रों को प्रभावित किया। एसएफआई का नेतृत्व इस बात को दबी जुबान से मान भी नहा है। डीएसयू का चुनाव से बाहर होने का भीतरी फायदा तो आइसा को मिला ही। आॅल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम (एआईबीएसएफ) और कैंपस फ्रंट आॅफ इंडिया(सीएफआई) ने एसएफआई के वोट बैंक में सेंध लगाते हुए एनएसयूआई-एबीवीपी का भी पिछड़ा वोट बांट लिया। इससे लड़ाई में आइसा को बढ़त मिल गयी। आइसा की जीत का मतलब यदि यह भी निकाला जाय कि जेएनयू के छात्रों ने एसएफआई-एआईएसएफ के सरकारी वामपंथ के खिलाफ आइसा की एक नयी क्रांतिकारी एवं संघर्षशील वाम राजनीति में उम्मीदे देख रहे हैं,तो जेएनयू में परंपरागत छात्रराजनीति के आधार पर इसे सही ठहराया जा सकता है। लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि जेएनयू की छात्र राजनीति में भी दौर के साथ परिवर्तन आया। यहां भी अंतर्राष्टÑीय और राष्टÑीय मुद्दे पर कैंपस की स्थानीय मुद्दे हावी होने लगे हैं। एबीवीपी ने शुरू में नार्थ-ईस्ट के छात्रों का धु्रवीकरण करने के लिए तिब्बत की आजादी का मुद्दा उठाकर रिएक्शन चेक किया था। लेकिन आपेक्षित रिस्पांस नहीं मिलने पर यह मुद्दा ही छोड़ दिया।   आइसा ने भी चुनाव जीतने के लिए एंटी लिंगदोह विचारों के साथ कैंपस के स्थानीय समस्याआें को मुद्दा बनाया। छात्रसंघ की नवनिर्वाचित अध्यक्ष आइसा की सुचेता डे का मानना है कि संगठन की जीत में विचारधारा और पार्टी लाइन की भूमिका तो अब भी है। लेकिन स्थानीय मुद्दों की अहमियत अब बढ़ गयी है। ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद इसका उचित क्रियान्वयन कैंपस की समस्या रही है। आइसा ने प्रवेश से लेकर हॉस्टल आवंटन में आरक्षण के उचित क्रियान्वयन की मांग लगातार उठाया है। सफलता भी मिली है। नियुक्ति में आरक्षण के उचित क्रियान्वयन के लिए भी आइसा संघर्षरत रहा है। छात्रों को यह बात समझ में आ रही है कि आइसा कैंपस में उनका हितैषी छात्रसंगठन है,तो फिर वे लफ्फाजी की राजनीति करने वाले लोगों को क्यों चुनेंगे। सुचेता के मुताबिक केंद्र सरकार ने लिंगदोह शर्तें लगाकर छात्र राजनीति को खत्म करने की साजिश रच दी है। हम इसे पूरा नहीं होने देंगे। हमने छात्रसंघ बहाली की लड़ाई लड़ी। आइसा इस लड़ाइ में सबसे आगे रही। हमारी मेहनत से हमें कानूनी लड़ाई में भी आखिरकार जीत मिली। छात्रों ने इस बात को समझा और संगठन प्रत्याशियों को छात्र राजनीति को लिंगदोह शर्ताें की साजिश से बचाने के लिए आगे की लड़ाई जारी रखने का पूरा मौका दिया है। नवनिर्वाचित महासचिव रवि प्रकाश का कहना है कि लिंगदोह शर्ताें के खिलाफ लड़ाई तो अन्य संगठन भी लड़ रहे हैं। लेकिन वे चुनाव से ही बाहर हो जाते हैं। जबकि उन्हें चुनाव में आकर जनादेश जांचना चाहिए। हमने एंटी लिंगदोह लड़ाई लड़ी है। छात्रों ने हमें चुना है। आइसा ने अपनी घोषणा पत्र में भी जेएनयू छात्रसंघ को ‘लिंगदोह संहिता’ से मुक्ति दिलाने का वादा छात्रों से किया है। हम उसे पूरा करने के लिए आगे की लड़ाई जारी रखेंगे। यह हमारी प्राथमिकता है।  हमने मौखिक परीक्षा का अंक घटवाने का भी छात्रों से वायदा किया है। इसे भी 30 से घटवाकर 15 करने का पूरा प्रयास करेंगे।  ताकि वाइवा में शिक्षकों के दुराग्रह के चलते आम छात्रों के साथ जो अन्याय हो रहा है,उस पर रोक लगे। शिक्षकों के हांथ में अधिक अंक होने से वे  अपने चहेते छात्रों को इसका अनुचित लाभ देते हैं। वाइवा के अंक में कटौती होने से थियरी का अंक बढ़ेगा,जिसे छात्र अपनी प्रतिभा के बूते हासिल कर सकेंगे। एमफिल और पीएचडी के लिए मिलने वाली 3 और 5 हजार रुपये की वृति को बढ़ाने का हर संभव प्रयास करेंगे। यूजीसी जबतक मांग पूरी नहीं करती है,तबतक हम प्रशासन पर ही दबाव बनाकर यह लाभ छात्रों को दिलायेंगे। यूनिवर्सिटी प्रेस खोलवाने का वायदा पूरा करा करेंगे। प्रशासन पर प्रेस खोलने के लिए दबाव बनायेंगे। ताकि पीएचडी छात्रों का शोध पत्र प्रकाशित कर दुनिया के सामने लाया जा सके। जेएनयू इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी है,लेकिन शर्म की बात है कि यहां अब तक एक प्रेस नहीं है। इसके अभाव में छात्रों को अपने शोध पत्र प्रकाशित करवाने के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है। आइसा के वायदों पर पूरा भरोसा कर छात्रों ने उसे सिर माथे पर उठाया तो जरूर है,लेकिन देखना यह होगा कि आइसा संघ की सत्ता का इस्तेमाल केवल राजनीति के लिए करती है या फिर छात्रों से किये वादे को भी पूरा करती है।


 आइसा                              एसएफआई
सुचेता डे-2102                  जिको दास-751
अभिषेक 1997                   अनेघा इंगोले1357
रवि प्रकाश 1908                दुर्गेश त्रिपाठी 989
मोहम्मद फिरोज अहमद 1778     दुर्गेश त्रिपाठी 1199