शशि कान्त त्रिगुण
नेता जी सुभाष चंद्र बोस नहीं होते तो आजादी की जंग उतनी जल्दी नहीं जीती जाती, जितनी जल्दी जीत ली गई। एक विचार 'पूर्ण स्वराज ने अंग्रेजों को भारत छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया। यह माना जाता है कि इस विचार के प्रणेता महात्मा गांधी थे, जबकि सच्चाई यह है कि सबसे पहले नेता जी ने ही 'अनकंडिशनल इंडिपेंडेंस का विचार रखा था, जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 'पूर्ण स्वराज के रूप में मंजूर कर लिया गया। इसके साथ ही कतरा-कतरा आजादी देने के नरमपंथी कांग्रेसी नेताओं के विचार से खुश अंग्रेजों का दिल दहल गया और उन्होंने भारत को एक मुश्त स्वाधीनता सौंप दी।
स्वाधीनता संग्राम में क्रांति की आग भड़काने वाले नेता जी की 23 जनवरी को जयंती है। 1897 में इसी दिन वे तबके बंगाल प्रोविंस के ओडि़सा डिवीजन के कटक में प्रसिद्ध वकील जानकी नाथ बोस के घर जन्मे थे। 1902 में उन्हें प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में प्राथमिक शिक्षा के लिए दाखिल कराया गया। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें 1909 में रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला दिलाया गया, जहां बेनी माधव दास जैसा हेड मास्टर और मेंटर उन्हें मिला। यहां से 1913 में मैट्रीकुलेशन की परीक्षा में द्वितीय स्थान हासिल करने के बाद उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। यहीं पहली बार उनकी राष्ट्रवादी प्रतिबद्धता प्रकाश में आई, जब उन्होंने भारत के खिलाफ टिप्पड़ी करने वाले ऑटेन नामक एक प्रोफेसर को मुंहतोड़ जवाब दिया। उस प्रोफेसर को प्रताडि़त करने के आरोप में उन्हें इस कॉलेज से बर्खास्त भी कर दिया गया। यहां से निकाले जाने के बाद कलकत्ता यूनिवर्सिटी के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से उन्होंने 1918 में दर्शन शास्त्र में बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस विषय ने जीवन के असल मकसद की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया और उन्होंने 1919 में देश छोड़ दिया। पिता से इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) परीक्षा में शामिल होने के वादे के साथ इंग्लैंड चले गए। इसी साल कैब्रिज यूनिवर्सिटी के फिट्ज विलियम कॉलेज से उन्होंने जरूरी कोर्स वर्क पूरा किया। इसके बाद इंडियन सिविल सर्विस एक्जामिनेशन (आईसीएस) में शामिल हुए और तब इस नंबर एक की परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया। लेकिन उनका मकसद अंग्रेजों की नौकरी करना नहीं था। उन्होंने अपने बड़े भाई सरत चंद्र बोस को वहीं से चिट्ठी लिखी कि उनका मकसद मातृभूमि की सेवा करना है, वे सेवा ही करेंगे। पिता के डर से हालांकि उन्होंने नौकरी ज्वाइन की, लेकिन 23 अप्रैल 1921 को रिजाइन कर दिया। वे देश लौटे और बंगाल से स्वराज नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया। यहां उनके मेंटर बने चितरंजन दास, जो बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद के प्रखर प्रवक्ता थे। नेता जी को 1923 में अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। साथ ही बंगाल स्टेट कांग्रेस का सचिव भी। इन्होंने यहीं से चितरंजन द्वारा प्रकाशित होने वाले फारवर्ड नामक समाचार पत्र के संपादक का भी दायित्व संभाल लिया। यहां इन्होंने कलकत्ता नगर निगम के सीईओ के तौर पर काम किया, जिसके मेयर चितरंजन दास थे। 1925 में राष्ट्रवादियों की एक सभा आयोजित करने के आरोप में अंग्रेजों ने इन्होंने मांडले जेल भेज दिया।
जेल से छूटने के बाद 1927 में उन्हें कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया गया। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के साथ कांग्रेसी वालेंटियर्स को एकजुट करने में बड़ी भूमिका निभाई। इसके बाद सविनय अवज्ञा के आरोप में उन्हें अंग्रेजों ने फिर जेल भेज दिया। लेकिन इस बार जेल से छूटने के बाद लोगों ने उन्हें कलकत्ता का महापौर चुन लिया। उनकी लोकप्रियता अब खुलकर सामने आई। 1930 के बाद उन्होंने यूरोपिय देशों का भ्रमण किया। इस दौरान बेनिटो मुसोलनी से मिले। इन देशों में उन्होंने संगठन के तरीके सीखे। साथ ही साम्यवाद और फासीवाद की कार्यशैली को भी करीब से देखा और समझा। इसी दौरान इन्होंने शोध कार्य किया और 1920 से 1934 तक की गतिविधियों पर आधारित अपनी भारतीय संग्राम नामक अपनी किताब का पहला भाग लिखा। इस किताब के साथ उनका क्रांतिकारी विचार लोगों के बीच आ गया था। 1938 तक वे भारतीय राष्ट्रीय और स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में शुमार हो गए। वे शुरुआत में गांधी जी के संपर्क में आए तो स्वराज का अपरिपक्व विचार रखा। स्वराज से उनका सीधा मतलब अंग्रेजों के खिलाफ फौज खड़ी कर खुद एक शासन तंत्र खड़ा करने का था। लेकिन इसे गांधी जी ने सिरे से खारिज कर दिया। वे परिपक्व विचार के साथ चरणबद्ध तरीके से स्वराज चाहते थे। लेकिन गांधी जी की असहमति के विपरीत नेता जी कांग्रेस के भीतर अपने विचार पर सहमति बनाने में जुट रहे। 1938 में वह समय भी आया जब नेता जी को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और तबके शीर्ष नेता गांधी जी की असहमति के बावजूद 1939 में दोबारा इन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। इन्होंने इसी वर्ष ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। अब तक द्वितीय विश्व युद्ध भी शुरू हो चुका था। 1942 में दक्षिण पूर्व एशिया में जापान की जीत से नेता जी को एक मौका मिला। उधर जर्मनी की भी प्राथमिकताएं बदल रही थीं। इन दोनों घटनाओं को नेता जी ने ब्रिटिशर्स के खिलाफ मौके के रूप में लिया। नेजा जी एडोल्फ हिटलर से मिलने जर्मनी पहुंचे और 1943 में पानी के जहाज से जपान आ गए। यहां जपानी सरकार की मदद से उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिंद फौज) को खड़ा किया। इसमें विश्व युद्ध के दौरान सिंगापुर में बंदी बनाए गए अंग्रेजों के वफादार भारतीय सैनिकों को जोड़ा। कुछ ऐसे ब्रिटिश सैनिक भी फौज में शामिल हो गए, जो अंग्रेजी हुकूमत के रवैये से नाराज थे। जापान की मदद और फौज के बल बूते नेता जी ने बर्मा और जापान अधिकृत अंडमान निकोबार में अस्थाई सरकार का गठन किया। कुछ समय तक यहां की सरकार को अच्छे से चलाया भी। इससे अंग्रेजों के मनोबल को धक्का लगा। उन्होंने अंग्रेजों को घेरने के लिए सोवियत रूख, नाजी जर्मनी और इंपीरियल जपान से संपर्क बढ़ाया। आजाद हिंद फौज में जान भरने के लिए इन्होंने जय हिंद का नारा दिया, जो तब से लेकर आज के स्वाधीन भारत में भी चर्चित है। नेता जी मानते थे आजादी केवल नरम विचारों से बातचीत करते रहने से नहीं मिलेगी। इसलिए उन्होंने तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा दिया। इसका इतना असर हुआ कि नेता जी की अगुवाई में आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। नेता जी की अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी अभियान का असर आखिरकार गांधी के विचारों पर भी पड़ा और वे भी 1942 में करो या मरो तक उतर आए। आखिरकार अंग्रेजों ने भारत को स्वाधीनता सौंप दी। दुर्भाग्य यह रहा जिस आजादी के लिए नेता जी ने उम्र खपा दी उसे हासिल करने के बाद वे उसका दीदार करने के लिए नहीं बचे। 18 अगस्त 1945 में जापान के एक विमान में वे यात्रा पर थे कि ताइवान के पास विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और यात्रियों के साथ उनकी भी मौत हो गयी। हालांकि गांधी ही हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अतुलनीय अगुवा माने जाते हैं, लेकिन संग्राम की सफलता में नेता जी के साहसिक कदम और उनकी क्रांतिकारी विचारधारा को नरमपंथी विचार से कमतर आंकना गलत होगा। आजाद भारत के बारे में भी नेजा जी की राय स्पष्ट थी। उन्होंने साम्यवादी रूस, नाजी जर्मनी और इंपीरियल जापान का भ्रमण किया। यहां तक कि ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नेताओं से भी उनके अच्छे संबंध थे। यहां की व्यवस्थाओं को उन्होंने अच्छे से समझा था। वे खासकर सोवियत व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे। साम्यवाद का बहुत गहरा प्रभाव था उनपर। ऑथेरिटेरियन पद्धति में उनकी रजामंदी भी दिखती है। उनका मानना था कि किसी भी व्यवस्था को चलाने के लिए अधिकारों का पूर्ण एवं सख्त इस्तेमाल जरूरी है। लेकिन वे इन व्यवस्थाओं की नस्लभेद से नाराज थे। इस आधार पर आजाद भारत के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में उन्होंने राय बनाई। उन्होंने गांधी को बता दिया था कि आजाद भारत के लिए लोकतंत्र सबसे उपयोगी वैकल्पिक व्यवस्था होगी। उनके इस विचार को आजाद भारत में अपनाया गया। नेता जी पर स्वामी विवेकानंद के दर्शन और उनके विचारों का गहरा प्रभाव था। मानते थे कि भागवत गीता को नए भारत के निर्माण की दृष्टि से व्याख्यायित करने की जरूरत है। यह काम स्वामी जी ने बखूबी की है। उन्होंने विवेकानंद के दर्शन का खूब अध्ययन किया। वे मानते थे कि भागवत गीता से लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए। जैसी की मान्यता है नेता जी भी मानते थे कि गीता में धर्म, दर्शन, राजनीति, कुटनीति, युद्ध दर्शन, न्याय दर्शन, ज्ञान योग, कर्मयोग तथा भक्तियोग एक आदमी को संपूर्ण मानव बनाने के लिए पर्याप्त है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आज की संसद में जब कोई सांसद गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ के रूप में मान्यता देने की बात करता है कि तो चारों ओर हंगामा मच जाता है। नेता जी की जयंती पर खासकर युवाओं को उनके विचारों से कुछ ग्रहण करने की प्रेरणा लेनी चाहिए। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
नेता जी सुभाष चंद्र बोस नहीं होते तो आजादी की जंग उतनी जल्दी नहीं जीती जाती, जितनी जल्दी जीत ली गई। एक विचार 'पूर्ण स्वराज ने अंग्रेजों को भारत छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया। यह माना जाता है कि इस विचार के प्रणेता महात्मा गांधी थे, जबकि सच्चाई यह है कि सबसे पहले नेता जी ने ही 'अनकंडिशनल इंडिपेंडेंस का विचार रखा था, जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 'पूर्ण स्वराज के रूप में मंजूर कर लिया गया। इसके साथ ही कतरा-कतरा आजादी देने के नरमपंथी कांग्रेसी नेताओं के विचार से खुश अंग्रेजों का दिल दहल गया और उन्होंने भारत को एक मुश्त स्वाधीनता सौंप दी।
स्वाधीनता संग्राम में क्रांति की आग भड़काने वाले नेता जी की 23 जनवरी को जयंती है। 1897 में इसी दिन वे तबके बंगाल प्रोविंस के ओडि़सा डिवीजन के कटक में प्रसिद्ध वकील जानकी नाथ बोस के घर जन्मे थे। 1902 में उन्हें प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में प्राथमिक शिक्षा के लिए दाखिल कराया गया। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें 1909 में रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला दिलाया गया, जहां बेनी माधव दास जैसा हेड मास्टर और मेंटर उन्हें मिला। यहां से 1913 में मैट्रीकुलेशन की परीक्षा में द्वितीय स्थान हासिल करने के बाद उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। यहीं पहली बार उनकी राष्ट्रवादी प्रतिबद्धता प्रकाश में आई, जब उन्होंने भारत के खिलाफ टिप्पड़ी करने वाले ऑटेन नामक एक प्रोफेसर को मुंहतोड़ जवाब दिया। उस प्रोफेसर को प्रताडि़त करने के आरोप में उन्हें इस कॉलेज से बर्खास्त भी कर दिया गया। यहां से निकाले जाने के बाद कलकत्ता यूनिवर्सिटी के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से उन्होंने 1918 में दर्शन शास्त्र में बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस विषय ने जीवन के असल मकसद की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया और उन्होंने 1919 में देश छोड़ दिया। पिता से इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) परीक्षा में शामिल होने के वादे के साथ इंग्लैंड चले गए। इसी साल कैब्रिज यूनिवर्सिटी के फिट्ज विलियम कॉलेज से उन्होंने जरूरी कोर्स वर्क पूरा किया। इसके बाद इंडियन सिविल सर्विस एक्जामिनेशन (आईसीएस) में शामिल हुए और तब इस नंबर एक की परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया। लेकिन उनका मकसद अंग्रेजों की नौकरी करना नहीं था। उन्होंने अपने बड़े भाई सरत चंद्र बोस को वहीं से चिट्ठी लिखी कि उनका मकसद मातृभूमि की सेवा करना है, वे सेवा ही करेंगे। पिता के डर से हालांकि उन्होंने नौकरी ज्वाइन की, लेकिन 23 अप्रैल 1921 को रिजाइन कर दिया। वे देश लौटे और बंगाल से स्वराज नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया। यहां उनके मेंटर बने चितरंजन दास, जो बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद के प्रखर प्रवक्ता थे। नेता जी को 1923 में अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। साथ ही बंगाल स्टेट कांग्रेस का सचिव भी। इन्होंने यहीं से चितरंजन द्वारा प्रकाशित होने वाले फारवर्ड नामक समाचार पत्र के संपादक का भी दायित्व संभाल लिया। यहां इन्होंने कलकत्ता नगर निगम के सीईओ के तौर पर काम किया, जिसके मेयर चितरंजन दास थे। 1925 में राष्ट्रवादियों की एक सभा आयोजित करने के आरोप में अंग्रेजों ने इन्होंने मांडले जेल भेज दिया।
जेल से छूटने के बाद 1927 में उन्हें कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया गया। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के साथ कांग्रेसी वालेंटियर्स को एकजुट करने में बड़ी भूमिका निभाई। इसके बाद सविनय अवज्ञा के आरोप में उन्हें अंग्रेजों ने फिर जेल भेज दिया। लेकिन इस बार जेल से छूटने के बाद लोगों ने उन्हें कलकत्ता का महापौर चुन लिया। उनकी लोकप्रियता अब खुलकर सामने आई। 1930 के बाद उन्होंने यूरोपिय देशों का भ्रमण किया। इस दौरान बेनिटो मुसोलनी से मिले। इन देशों में उन्होंने संगठन के तरीके सीखे। साथ ही साम्यवाद और फासीवाद की कार्यशैली को भी करीब से देखा और समझा। इसी दौरान इन्होंने शोध कार्य किया और 1920 से 1934 तक की गतिविधियों पर आधारित अपनी भारतीय संग्राम नामक अपनी किताब का पहला भाग लिखा। इस किताब के साथ उनका क्रांतिकारी विचार लोगों के बीच आ गया था। 1938 तक वे भारतीय राष्ट्रीय और स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में शुमार हो गए। वे शुरुआत में गांधी जी के संपर्क में आए तो स्वराज का अपरिपक्व विचार रखा। स्वराज से उनका सीधा मतलब अंग्रेजों के खिलाफ फौज खड़ी कर खुद एक शासन तंत्र खड़ा करने का था। लेकिन इसे गांधी जी ने सिरे से खारिज कर दिया। वे परिपक्व विचार के साथ चरणबद्ध तरीके से स्वराज चाहते थे। लेकिन गांधी जी की असहमति के विपरीत नेता जी कांग्रेस के भीतर अपने विचार पर सहमति बनाने में जुट रहे। 1938 में वह समय भी आया जब नेता जी को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और तबके शीर्ष नेता गांधी जी की असहमति के बावजूद 1939 में दोबारा इन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। इन्होंने इसी वर्ष ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। अब तक द्वितीय विश्व युद्ध भी शुरू हो चुका था। 1942 में दक्षिण पूर्व एशिया में जापान की जीत से नेता जी को एक मौका मिला। उधर जर्मनी की भी प्राथमिकताएं बदल रही थीं। इन दोनों घटनाओं को नेता जी ने ब्रिटिशर्स के खिलाफ मौके के रूप में लिया। नेजा जी एडोल्फ हिटलर से मिलने जर्मनी पहुंचे और 1943 में पानी के जहाज से जपान आ गए। यहां जपानी सरकार की मदद से उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिंद फौज) को खड़ा किया। इसमें विश्व युद्ध के दौरान सिंगापुर में बंदी बनाए गए अंग्रेजों के वफादार भारतीय सैनिकों को जोड़ा। कुछ ऐसे ब्रिटिश सैनिक भी फौज में शामिल हो गए, जो अंग्रेजी हुकूमत के रवैये से नाराज थे। जापान की मदद और फौज के बल बूते नेता जी ने बर्मा और जापान अधिकृत अंडमान निकोबार में अस्थाई सरकार का गठन किया। कुछ समय तक यहां की सरकार को अच्छे से चलाया भी। इससे अंग्रेजों के मनोबल को धक्का लगा। उन्होंने अंग्रेजों को घेरने के लिए सोवियत रूख, नाजी जर्मनी और इंपीरियल जपान से संपर्क बढ़ाया। आजाद हिंद फौज में जान भरने के लिए इन्होंने जय हिंद का नारा दिया, जो तब से लेकर आज के स्वाधीन भारत में भी चर्चित है। नेता जी मानते थे आजादी केवल नरम विचारों से बातचीत करते रहने से नहीं मिलेगी। इसलिए उन्होंने तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा दिया। इसका इतना असर हुआ कि नेता जी की अगुवाई में आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। नेता जी की अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी अभियान का असर आखिरकार गांधी के विचारों पर भी पड़ा और वे भी 1942 में करो या मरो तक उतर आए। आखिरकार अंग्रेजों ने भारत को स्वाधीनता सौंप दी। दुर्भाग्य यह रहा जिस आजादी के लिए नेता जी ने उम्र खपा दी उसे हासिल करने के बाद वे उसका दीदार करने के लिए नहीं बचे। 18 अगस्त 1945 में जापान के एक विमान में वे यात्रा पर थे कि ताइवान के पास विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और यात्रियों के साथ उनकी भी मौत हो गयी। हालांकि गांधी ही हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अतुलनीय अगुवा माने जाते हैं, लेकिन संग्राम की सफलता में नेता जी के साहसिक कदम और उनकी क्रांतिकारी विचारधारा को नरमपंथी विचार से कमतर आंकना गलत होगा। आजाद भारत के बारे में भी नेजा जी की राय स्पष्ट थी। उन्होंने साम्यवादी रूस, नाजी जर्मनी और इंपीरियल जापान का भ्रमण किया। यहां तक कि ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नेताओं से भी उनके अच्छे संबंध थे। यहां की व्यवस्थाओं को उन्होंने अच्छे से समझा था। वे खासकर सोवियत व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे। साम्यवाद का बहुत गहरा प्रभाव था उनपर। ऑथेरिटेरियन पद्धति में उनकी रजामंदी भी दिखती है। उनका मानना था कि किसी भी व्यवस्था को चलाने के लिए अधिकारों का पूर्ण एवं सख्त इस्तेमाल जरूरी है। लेकिन वे इन व्यवस्थाओं की नस्लभेद से नाराज थे। इस आधार पर आजाद भारत के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में उन्होंने राय बनाई। उन्होंने गांधी को बता दिया था कि आजाद भारत के लिए लोकतंत्र सबसे उपयोगी वैकल्पिक व्यवस्था होगी। उनके इस विचार को आजाद भारत में अपनाया गया। नेता जी पर स्वामी विवेकानंद के दर्शन और उनके विचारों का गहरा प्रभाव था। मानते थे कि भागवत गीता को नए भारत के निर्माण की दृष्टि से व्याख्यायित करने की जरूरत है। यह काम स्वामी जी ने बखूबी की है। उन्होंने विवेकानंद के दर्शन का खूब अध्ययन किया। वे मानते थे कि भागवत गीता से लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए। जैसी की मान्यता है नेता जी भी मानते थे कि गीता में धर्म, दर्शन, राजनीति, कुटनीति, युद्ध दर्शन, न्याय दर्शन, ज्ञान योग, कर्मयोग तथा भक्तियोग एक आदमी को संपूर्ण मानव बनाने के लिए पर्याप्त है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आज की संसद में जब कोई सांसद गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ के रूप में मान्यता देने की बात करता है कि तो चारों ओर हंगामा मच जाता है। नेता जी की जयंती पर खासकर युवाओं को उनके विचारों से कुछ ग्रहण करने की प्रेरणा लेनी चाहिए। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।