मंगलवार, जुलाई 21, 2015

पूर्ण स्वराज के विचार स्रोत नेता जी

शशि कान्त त्रिगुण 
नेता जी सुभाष चंद्र बोस नहीं होते तो आजादी की जंग उतनी जल्दी नहीं जीती जाती, जितनी जल्दी जीत ली गई। एक विचार 'पूर्ण स्वराज ने अंग्रेजों को भारत छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया। यह माना जाता है कि इस विचार के प्रणेता महात्मा गांधी थे, जबकि सच्चाई यह है कि सबसे पहले नेता जी ने ही 'अनकंडिशनल इंडिपेंडेंस का विचार रखा था, जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 'पूर्ण स्वराज के रूप में मंजूर कर लिया गया। इसके साथ ही कतरा-कतरा आजादी देने के नरमपंथी कांग्रेसी नेताओं के विचार से खुश अंग्रेजों का दिल दहल गया और उन्होंने भारत को एक मुश्त स्वाधीनता सौंप दी। 
 स्वाधीनता संग्राम में क्रांति की आग भड़काने वाले नेता जी की 23 जनवरी को जयंती है। 1897 में इसी दिन वे तबके बंगाल प्रोविंस के ओडि़सा डिवीजन के कटक में प्रसिद्ध वकील जानकी नाथ बोस के घर जन्मे थे। 1902 में उन्हें प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में प्राथमिक शिक्षा के लिए दाखिल कराया गया। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें 1909 में रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला दिलाया गया, जहां बेनी माधव दास जैसा हेड मास्टर और मेंटर उन्हें मिला। यहां से 1913 में मैट्रीकुलेशन की परीक्षा में द्वितीय स्थान हासिल करने के बाद उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। यहीं पहली बार उनकी राष्ट्रवादी प्रतिबद्धता प्रकाश में आई, जब उन्होंने भारत के खिलाफ टिप्पड़ी करने वाले ऑटेन नामक एक प्रोफेसर को मुंहतोड़ जवाब दिया। उस प्रोफेसर को प्रताडि़त करने के आरोप में उन्हें इस कॉलेज से बर्खास्त भी कर दिया गया। यहां से निकाले जाने के बाद कलकत्ता यूनिवर्सिटी के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से उन्होंने 1918 में दर्शन शास्त्र में बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस विषय ने जीवन के असल मकसद की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया और उन्होंने 1919 में देश छोड़ दिया। पिता से इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) परीक्षा में शामिल होने के वादे के साथ इंग्लैंड चले गए। इसी साल कैब्रिज यूनिवर्सिटी के फिट्ज विलियम कॉलेज से उन्होंने जरूरी कोर्स वर्क पूरा किया। इसके बाद इंडियन सिविल सर्विस एक्जामिनेशन (आईसीएस) में शामिल हुए और तब इस नंबर एक की परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया। लेकिन उनका मकसद अंग्रेजों की नौकरी करना नहीं था। उन्होंने अपने बड़े भाई सरत चंद्र बोस को वहीं से चिट्ठी लिखी कि उनका मकसद मातृभूमि की सेवा करना है, वे सेवा ही करेंगे। पिता के डर से हालांकि उन्होंने नौकरी ज्वाइन की, लेकिन 23 अप्रैल 1921 को रिजाइन कर दिया। वे देश लौटे और बंगाल से स्वराज नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया। यहां उनके मेंटर बने चितरंजन दास, जो बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद के प्रखर प्रवक्ता थे। नेता जी को 1923 में अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। साथ ही बंगाल स्टेट कांग्रेस का सचिव भी। इन्होंने यहीं से चितरंजन द्वारा प्रकाशित होने वाले फारवर्ड नामक समाचार पत्र के संपादक का भी दायित्व संभाल लिया। यहां इन्होंने कलकत्ता नगर निगम के सीईओ के तौर पर काम किया, जिसके मेयर चितरंजन दास थे। 1925 में राष्ट्रवादियों की एक सभा आयोजित करने के आरोप में अंग्रेजों ने इन्होंने मांडले जेल भेज दिया। 
  जेल से छूटने के बाद 1927 में उन्हें कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया गया। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के साथ कांग्रेसी वालेंटियर्स को एकजुट करने में बड़ी भूमिका निभाई। इसके बाद सविनय अवज्ञा के आरोप में उन्हें अंग्रेजों ने फिर जेल भेज दिया। लेकिन इस बार जेल से छूटने के बाद लोगों ने उन्हें कलकत्ता का महापौर चुन लिया। उनकी लोकप्रियता अब खुलकर सामने आई। 1930 के बाद उन्होंने यूरोपिय देशों का भ्रमण किया। इस दौरान बेनिटो मुसोलनी से मिले। इन देशों में उन्होंने संगठन के तरीके सीखे। साथ ही साम्यवाद और फासीवाद की कार्यशैली को भी करीब से देखा और समझा। इसी दौरान इन्होंने शोध कार्य किया और 1920 से 1934 तक की गतिविधियों पर आधारित अपनी भारतीय संग्राम नामक अपनी किताब का पहला भाग लिखा। इस किताब के साथ उनका क्रांतिकारी विचार लोगों के बीच आ गया था। 1938 तक वे भारतीय राष्ट्रीय और स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में शुमार हो गए। वे शुरुआत में गांधी जी के संपर्क में आए तो स्वराज का अपरिपक्व विचार रखा। स्वराज से उनका सीधा मतलब अंग्रेजों के खिलाफ फौज खड़ी कर खुद एक शासन तंत्र खड़ा करने का था। लेकिन इसे गांधी जी ने सिरे से खारिज कर दिया। वे परिपक्व विचार के साथ चरणबद्ध तरीके से स्वराज चाहते थे। लेकिन गांधी जी की असहमति के विपरीत नेता जी कांग्रेस के भीतर अपने विचार पर सहमति बनाने में जुट रहे। 1938 में वह समय भी आया जब नेता जी को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और तबके शीर्ष नेता गांधी जी की असहमति के बावजूद 1939 में दोबारा इन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। इन्होंने इसी वर्ष ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। अब तक द्वितीय विश्व युद्ध भी शुरू हो चुका था। 1942 में दक्षिण पूर्व एशिया में जापान की जीत से नेता जी को एक मौका मिला। उधर जर्मनी की भी प्राथमिकताएं बदल रही थीं। इन दोनों घटनाओं को नेता जी ने ब्रिटिशर्स के खिलाफ मौके के रूप में लिया। नेजा जी एडोल्फ हिटलर से मिलने जर्मनी पहुंचे और 1943 में पानी के जहाज से जपान आ गए। यहां जपानी सरकार की मदद से उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिंद फौज) को खड़ा किया। इसमें विश्व युद्ध के दौरान सिंगापुर में बंदी बनाए गए अंग्रेजों के वफादार भारतीय सैनिकों को जोड़ा। कुछ ऐसे ब्रिटिश सैनिक भी फौज में शामिल हो गए, जो अंग्रेजी हुकूमत के रवैये से नाराज थे। जापान की मदद और फौज के बल बूते नेता जी ने बर्मा और जापान अधिकृत अंडमान निकोबार में अस्थाई सरकार का गठन किया। कुछ समय तक यहां की सरकार को अच्छे से चलाया भी। इससे अंग्रेजों के मनोबल को धक्का लगा। उन्होंने अंग्रेजों को घेरने के लिए सोवियत रूख, नाजी जर्मनी और इंपीरियल जपान से संपर्क बढ़ाया। आजाद हिंद फौज में जान भरने के लिए इन्होंने जय हिंद का नारा दिया, जो तब से लेकर आज के स्वाधीन भारत में भी चर्चित है। नेता जी मानते थे आजादी केवल नरम विचारों से बातचीत करते रहने से नहीं मिलेगी। इसलिए उन्होंने तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा दिया। इसका इतना असर हुआ कि नेता जी की अगुवाई में आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। नेता जी की अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी अभियान का असर आखिरकार गांधी के विचारों पर भी पड़ा और वे भी 1942 में करो या मरो तक उतर आए। आखिरकार अंग्रेजों ने भारत को स्वाधीनता सौंप दी। दुर्भाग्य यह रहा जिस आजादी के लिए नेता जी ने उम्र खपा दी उसे हासिल करने के बाद वे उसका दीदार करने के लिए नहीं बचे। 18 अगस्त 1945 में जापान के एक विमान में वे यात्रा पर थे कि ताइवान के पास विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और यात्रियों के साथ उनकी भी मौत हो गयी। हालांकि गांधी ही हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अतुलनीय अगुवा माने जाते हैं, लेकिन संग्राम की सफलता में नेता जी के साहसिक कदम और उनकी क्रांतिकारी विचारधारा को नरमपंथी विचार से कमतर आंकना गलत होगा। आजाद भारत के बारे में भी नेजा जी की राय स्पष्ट थी। उन्होंने साम्यवादी रूस, नाजी जर्मनी और इंपीरियल जापान का भ्रमण किया। यहां तक कि ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नेताओं से भी उनके अच्छे संबंध थे। यहां की व्यवस्थाओं को उन्होंने अच्छे से समझा था। वे खासकर सोवियत व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे। साम्यवाद का बहुत गहरा प्रभाव था उनपर। ऑथेरिटेरियन पद्धति में उनकी रजामंदी भी दिखती है। उनका मानना था कि किसी भी व्यवस्था को चलाने के लिए अधिकारों का पूर्ण एवं सख्त इस्तेमाल जरूरी है। लेकिन वे इन व्यवस्थाओं की नस्लभेद से नाराज थे। इस आधार पर आजाद भारत के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में उन्होंने राय बनाई। उन्होंने गांधी को बता दिया था कि आजाद भारत के लिए लोकतंत्र सबसे उपयोगी वैकल्पिक व्यवस्था होगी। उनके इस विचार को आजाद भारत में अपनाया गया। नेता जी पर स्वामी विवेकानंद के दर्शन और उनके विचारों का गहरा प्रभाव था। मानते थे कि भागवत गीता को नए भारत के निर्माण की दृष्टि से व्याख्यायित करने की जरूरत है। यह काम स्वामी जी ने बखूबी की है। उन्होंने विवेकानंद के दर्शन का खूब अध्ययन किया। वे मानते थे कि भागवत गीता से लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए। जैसी की मान्यता है नेता जी भी मानते थे कि गीता में धर्म, दर्शन, राजनीति, कुटनीति, युद्ध दर्शन, न्याय दर्शन, ज्ञान योग, कर्मयोग तथा भक्तियोग एक आदमी को संपूर्ण मानव बनाने के लिए पर्याप्त है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आज की संसद में जब कोई सांसद गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ के रूप में मान्यता देने की बात करता है कि तो चारों ओर हंगामा मच जाता है। नेता जी की जयंती पर खासकर युवाओं को उनके विचारों से कुछ ग्रहण करने की प्रेरणा लेनी चाहिए। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

शुक्रवार, जनवरी 11, 2013

कितना जायज था राजपथ पर ‘लाठी चार्ज’


   ब्लॉग पर प्रकाशित इस लेख के लेखक सूरज सिंह हैं। ये विचार निहायत उनके अपने हैं।
लाठी चार्ज सुनने में अजीब बिलकुल नहीं लगेगा। आज के दौर में हर कोई इस शब्द को भली भांति समझता होगा। दरअसल, समाज में बिगड़ते माहौल और उपद्रवियों को शांत करने के लिए सुरक्षाबल इसका प्रयोग करता है। देशभर में कई मुद्दों पर होते लाठी चार्ज की घटनाओं को हम खबरों में देखते-पढ़ते और सुनते हैं। लेकिन, उसका उतना फर्क नहीं पड़ता, जितना फर्क राजपथ पर हुए लाठी चार्ज का देशवासियों पर पड़ा है। भई, ऐसा हो भी क्यों न.. भारत की राजधानी और उसमें भी सबसे वीआईपी जोन, राजपथ पर हुए लाठी चार्ज की गूंज न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों तक में सुनाई दी थी। वसंत विहार में 16 दिसंबर की रात चलती बस में एक पैरामेडीकल की छात्रा के साथ छह दरिंदों बलात्कार कर दिया। बात केवल इतनी ही नहीं रही। घटना को अंजाम देने वाले उन हैवानों ने पीड़िता के शरीर को ऐसी-ऐसी तकलीफें भी दी, जिनका जिक्र हम नहीं कर सकते। उसके बाद दरिंदों ने उस लड़की और उसके दोस्त को चलती बस से फेंक कर फरार हो गए। घटना की सूचना जैसे-जैसे मीडिया को लगी। देश भर में इसके खिलाफ आवाजें उठने लगीं। इस दिल दहलाने वाली खबर को सुनने के बाद हर किसी के जहन में गुस्सा तब और भर आया, जब यह पता लगा कि  इस घटना में कहीं न कहीं दिल्ली पुलिस का भी दोष रहा है। फिर क्या था, हर कोई दिल्ली पुलिस और सरकार के खिलाफ एकजुट हो गए। गुस्साए लोगों ने न सिर्फ दिल्ली पुलिस के खिलाफ आवाजे बुलंद की, बल्कि उन्होंने इसके लिए राजधानी की प्रदेश सरकार को भी दोषी ठहराया।
देशभर में घटना के विरोध में धरना-प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया। राजधानी दिल्ली में इसका खासा असर देखने को मिला। लोगों ने मुद्दे को सोशल नेटवर्किंग साइट के माध्यम से उछाला। पीड़िता को इंसाफ दिलाने के लिए लोगों ने दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। देश-विदेश के मीडिया द्वारा हो रही कवरेज के चलते प्रदर्शन दिन-प्रतिदिन और उग्र होता चला गया। प्रदर्शनों के इस दौर में एक दिन तो हजारों की तादात में लोगों ने राष्ट्रपति भवन की और रुख कर दिया। नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक पर जमा हुई भीड़ को नियंत्रित करने के लिए दिल्ली पुलिस के जवान सहित रेपिड एक्शन फोर्स भी मौके पर मुस्तैद हो गई। बैरिकेट्स लगाकर भीड़ को उस दिन वहीं थाम लिया गया। हालांकि, इस दिन भी बीच-बीच में उग्र हो रहे विरोध काबू में करने के लिए पुलिस ने कई बार आंसू गैस और वाटर कैनन का इस्तेमाल किया था।
अगले दिन सुरक्षा के लिहाज से दिल्ली पुलिस ने शांतिपूर्वक विरोध जाहिर करने के लिए प्रदर्शनकारियों को इंडिया गेट परिसर में इजाजत दे दी। लेकिन, इंतजाम इतने मजबूत थे कि इस बार कोई भी राष्ट्रपति भवन की ओर रुख न कर सके। इस दिन दिल्ली पुलिस के ऐहतियातन रेपिड एक्शन फोर्स और सीआरपीएफ के जवानों को इंडिया गेट परिसर पर इस कदर मुस्तैद कर दिया कि परिंदा भी राष्ट्रपति भवन की और पर नहीं मार सकता था। मैं और मेरे सहयोगी अरुण कुमार पांडेय इस दिन भी मौके पर पहुंचे। हम लोगों ने देखा कि राजधानी ही नहीं आस-पास के शहरों से कई महिला संगठन अपने साथियों के साथ इंडिया गेट पर विरोध करने के लिए जुटे थे। वे लोग दिल्ली पुलिस के साथ सरकार के खिलाफ भी नारेबाजी कर रहे थे। लगभग आधा दिन गुजर चुका था। हर तरफ लोग अपने-अपने तरीके से टोलियां बना कर लड़की को इंसाफ दिलाने के लिए सरकार और पुलिस से गुहार लगा रहा था।

तभी अचानक कहीं से आवाज आई कि संसद भवन के पास महामहिम बुला रहे हैं। फिर क्या था लोगों ने बिना सोचे-समझे संसद की ओर रुख करना शुरू कर दिया। सैकड़ों की तादात में जब लोगों ने उस तरफ रुख किया, तो दिल्ली पुलिस ने उन पर काबू पाने के लिए आंसू गैस का गोला दाग दिया। यही गोला था जिसके बाद मची अफरा-तफरी ने बाद में बहुत बड़ा ‘तूफान’ खड़ा कर दिया। गोले की धमक ने लोगों को डराने की बजाए उकसाने का काम कर दिया। लोगों का गुस्सा इस कदर फूटा कि शांतिपूर्वक चल रहा विरोध-प्रदर्शन अब उग्र रूप ले चुका था। पुलिस ने तमाम कोशिशों के बाद लोगों को संसद मार्ग के इंडिया गेट की तरफ खदेड़ दिया। ऐसे में अब प्रदर्शनकारियों ने और कड़े तेवरों के साथ दिल्ली पुलिस के खिलाफ नारेबाजी करनी शुरू कर दी। सैकड़ों की तादात में लोग पुलिस बैरिकेटिंग तोड़कर राष्ट्रपति भवन की ओर रुख करने पर आमादा थे। ऐसे में पुलिस के लिए बड़ी चुनौती पैदा हो गई कि किस तरह इस भीड़ के नियंत्रण में किया जाए। ‘वी वांट जस्टिस-वी वांट जस्टिस’ और ‘दिल्ली पुलिस हाय-हाय दिल्ली पुलिस हाय-हाय’ के नारों के साथ माहौल और गर्म हो गया। हमने वहां देखा कि प्रदर्शनकारियों में कुछ लोगों ने आंसू गैस के जवाब में पुलिस के ऊपर धीरे-धीरे पथराव करना शुरू कर दिया। एक के बाद एक आंसू गैस के गोले दागे जाने की वजह से वातावरण में धुआं ही धुआं फैल गया था। लेकिन, यहा पर पुलिस को बदकिस्मती की वजह से मुंह की खानी पड़ी। हवा का रुख पुलिस की ओर ही था। ऐसे में प्रदर्शनकारियों पर दागे जा रहे आंसू गैस के गोलों का धुआं पुलिस के लिए ही मुसीबत बन गया। पुलिसकर्मी और रेपिड एक्शन फोर्स के जवान वहां से भागने लगे। मैं और मेरे सहयोग अरुण कुमार पांडेय भी इन लोगों के बीच फंस गए।   हम दोनों पहली बार आंसू गैस के प्रकोप का शिकार हुए। हमने महसूस किया कि सांस लेने में काफी तकलीफ हो रही है। मुंह-नाक-आंखों से पानी बहने लगा। खैर थोड़ी ही देर बाद आंसू गैस का असर कम होने लगा।
देश की राजधानी का सबसे सुरक्षित जोन राजपथ पर इस तरह का दृश्य देखकर एक बार तो मेरे रोंगते ही खड़े हो गए। मेरे मन में सवाल चल रहा था इस वक्त इस घटना को न सिर्फ देश बल्कि विश्व का मीडिया कवर कर रहा है। देश की इज्जत अब तार-तार हो गई। लोगों ने प्रदर्शन और विरोध करने की सारी सीमाएं तोड़ दीं। मैंने यह भी सोचा कि अब इतिहास में दर्ज होते इस काले दिन का मैं भी साक्षी हो गया। बहरहाल, भारी नारेबाजी और पुलिस के ऊपर पथराव की गति और तेज हो गई। प्रदर्शनकारियों की तरफ से आ रहे पत्थरों से कई पुलिसकर्मी घायल हो गए। किसी के सिर से तो किसी के नाक से खून बह रहा है। स्थिति को काबू में करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोलों के साथ पानी की बौछारें भी शुरू कर दीं। एक वाटर कैनन खाली होकर वापस चली गई। ऐसे में प्रदर्शनकारियों का तो मानो मनोबल बढ़ गया। विरोध और उग्र रूप लेने लगा। थोड़ी देर में मौके पर मौजूद पुलिस अधिकारियों को खबर मिली कि प्रदर्शनकारियों ने दो गाड़ियों में आग लगा दी है। इस वहां मौजूद वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों पर स्थिति को काबू में करने का दबाव और अधिक बढ़ गया।
थोड़ी ही देर में देखा कि एक न्यूज एजेंसी के फोटो ग्राफर के सिर में पत्थर लगने से वह गंभीर रूप से घायल हो गया। पुलिस अधिकारियों के ऊपर एकाएक दबाव और बढ़ने लगा। ऐसे में मैं उन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का नाम नहीं लूंगा, जिनके बीच यह चर्चा शुरू हो गई कि स्थिति को काबू में करने के लिए सख्म कदम उठाने होंगे। वहां मौजूद में पुलिस अधिकारियों को एलआईयू के कर्मचारी ने बताया कि ‘सर अभी लाठी चार्ज मत करना, आगे लड़कियां और महिलाएं काफी संख्या में हैं’। उस समय तो पुलिस ने कोई सख्त कदम नहीं उठाए। लेकिन थोड़ी ही देर बाद तेज हुए पथराव ने पुलिस को उकसा दिया। उसके बाद पुलिस को आदेश मिला कि किसी भी तरह से इंडियागेट परिसर को खाली कराया जाए। बस, फिर क्या था पुलिस और आरएएफ के जवानों ने आंव देखा न तांव। एक सिरे से लोगों को खदेड़ना शुरू कर दिया। इसमें कई छोटे बच्चों, युवतियों, महिलाओं और बुजुर्ग लोगों को भी पुलिस ने नहीं बख्शा। हर किसी पर लाठी भांज कर पुलिस घंटे भर में ही इंडिया गेट परिसर खाली करा दिया।
ऐसे में अब सवाल उठ रहा है कि दिल्ली पुलिस द्वारा राजपथ पर किया लाठी चार्ज क्या वाकई में जायज था। इसी को लेकर दिल्ली पुलिस सवालों के घेरे में हैं। अदालत ने पुलिस को फटकार लगाकर पूरे मामले की रिपोर्ट मांगी है। देश भर में इस घटना के बाद दिल्ली पुलिस की चौंतरफा निंदा हो रही है। लोग मांग कर रहे हैं कि इस घटना में दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए। बहरहाल, मामला अब अदालत में है, पुलिस को अपनी दलील रखनी है। आगे का निर्णय तो कोर्ट के हाथों में है कि वह क्या फैसला करता है?

बुधवार, दिसंबर 26, 2012

हर घर में इस ‘आंदोलन’ की जरूरत


एक(लड़की कहने जरूरत नहीं है) के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद राष्टÑ में एक उबाल आ गया है। यह उबाल अब लहर में तब्दिल हो गया है। अगर मैं कुछ जोखिम लेकर कहूं तो यही लहर पैदा करने के लिए किसी ने एक बुलबुला पैदा किया गया था। लेकिन उसकी जगह लहर पर सवार होने के लिए कई आगे आ गये हैं। लोगों में खासकर युवाओं(असली-नकली की बात छोड़कर) में जितना रोष और आक्रोश दिख रहा है,वह मात्रात्मक और गुणात्मक रूप से जायज है। जायज में नाजायज की संभावना हमेशा बनी रहती है। एक ‘पुलिस’ का मर जाना शायद इसी तरह का नाजायज है, जिससे बेफिक्र ‘भीड़’ की मांगें भी जायज हैं। बलात्कारियों को फांसी की,सिस्टम में सुधार और कुछ बदलाव की,बराबर की आजादी की,महिलाआें के प्रति सामाजिक सोच में बदलाव की। लेकिन यह कितना जायज है कि इस ‘आक्रोश’ को केवल दिल्ली की रायसीना हिल्स और कुछ बड़े-छोटे शहरों के गिर्द बना जमा करके इन मांगों को पूरी करवाने की कोशिश हो। यदि यही जायज है, तो फिर हिंसा की संभावनाओं को चाहकर भी खारिज नहीं किया जा सकता। क्योंकि जायज मसलों पर सरकार को चुनौती देना हमारा हक है,लेकिन चुनौती जब ‘स्टेट’ तक पहुंच जाती है तो वह अपनी सुरक्षा किसी भी कीमत पर करता है,जो उसका धर्म है। दिल्ली में जमा होने से जितना होने वाला था,हो गया। जो नहीं हो पाया है,वह यहां से नहीं हो सकता सकता। उसे हासिल करने के लिए इस नन-हेडेड ‘मूवमेंट’ को घर-घर के आंगन में ले चलना होगा।

                 दिल्ली में एक के साथ बलात्कार की घटना हुई है। देश में रोज ना जाने कितनी ऐसी घटनाएं होती हैं। जहां तक मीडिया की पुहंच है,वहां की कुछ घटनाएं खबर बन जाती हैं। कुछ दब जाती हैं और कुछ दबा दी जाती हैं। मीडिया की पहुंच से बाहर की घटनाएं गली-मोहल्ले के लोगों के कुछ दिनों का ‘गॉसिप डोज’ बनकर रह जाती हैं। कुछ बलात्कारी की घटनाएं ऐसी होती हैं,जिन्हें कानून एवं व्यवस्था पंडित और सिपाही बलात्कार मानते ही नहीं। जो साबित भी हो जाती हैं,तो दोषियों को एसी कड़ी सजा नहीं मिलती कि समाज में ऐसी मानसिकता को डराने वाला एक कड़ा संदेश जाय। दरअसल बलात्कार की कानूनी परिभाषा में भी ‘खोट-खामी’ है। आम लोगों में यही धारणा है कि एक मर्द या लड़का जब किसी महिला या लड़की के साथ उसकी इच्छा के बगैर या जबर्दस्ती यौन संबंध बनाता है,उसे बलात्कार कहते हैं।
 लेकिन इसके उल्टा एक महिला या लड़की जब किसी मर्द या लड़के के साथ उसकी इच्छा के बगैर(जबर्दस्ती) यौन संबंध बनाती है,तो इसे क्या कहेंगे। खासकर विपरित लिंगियों के बीच होने वाली बहुत सारी ऐसी बड़ी-छोटी घटनाएं हैं,जिन्हें हमारी पुलिस यौन प्रताड़ना,छेड़छाड़ या बदसलूकी की सामान्य धाराओं में दर्ज कर लेती है। ‘बलात्कार’ का एक जादुई डर समाज में पैदा करना है तो इसकी कानूनी परिभाषा के सीमा को बढ़ाना होगा। जघन्य बलात्कार के लिए फांसी की सजा पर सोचा जा सकता है। लेकिन बलात्कार के लिए फांसी की सजा पर सोचने से पहले सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शिक्षण संस्थान,पार्टी प्वाइंट,दफ्तर और घरों में होने वाले ‘बलात्+कार’ को बलात्कार की कानूनी धाराओं में शामिल किया जाय।
बलात्कारी एक तात्कालित समस्या,बलात्कारी मानसिकता स्थायी समस्या है। इसकी जड़ पुरूष प्रधान समाज के ढांचे में है। यह समझना होगा। रायसीना हिल्स के आस-पास कई दिनों से प्रदर्शन कर रही ‘भीड़’ अपनी समझदारी के हिसाब कई तरह की मांगें उठा रही है। पुलिस की संख्या बढ़ाने की,पीसीआर,पुलिस गस्त बढ़ाने की,सीसीटीवी कैमरे लगाने की और सामाजिक बदलाव की। सामाजिक बदलाव को छोड़कर बाकी सभी मांगें मुझे अजीब लगती हैं। उसी पुलिस की संख्या बढ़ाने की मांग की जा रही है,जिस पर महिलाओं को भरोसा नहीं है। हर महिला के साथ एक सिपाही लगा देने से ऐसी घटनाएं रुक जाएंगी या और बढ़ जाएंगी। मुझे समझ में नहीं आता। जब बसों की सीट के पीछे पुलिस द्वारा लिखी चेतावनी को पोत दिया जाता है,पर्चियां फाड़ दी जाती हैं,तो क्या गारंटी है कि बसों में लगाये जाने वाले सीसीटीवी कैमरे बच पायेंगे।
पुलिस की गस्त बढ़ जाएगी तो कुछ तत्व कल को समाज में कर्फ्यू जैसे हालात पैदा करने के आरोप से घेर लेंगे। फॉस्ट ट्रैक कोर्ट तो बलात्कार की घटनाओं पर रोक नहीं लगा सकता,वह केवल मामलों की त्वरित सुनवाई कर दोषियों को कड़ी सजा सुना सकता है। देश में हत्या के कई मामलों में उम्र कैद की सजा हो चुकी है,लेकिन क्या हत्या की घटनाआें पर पूरा नियंत्रण हो पाया है। प्रधानमंत्री की राजनीतिक नजरिये से नहीं,मैं एक सामाजिक प्राणी के नाते मानता हूं कि युवाआें का तात्कालिक गुस्सा जायज है,इसे जाया नहीं होने देना चाहिए। प्रदर्शनरियों की जायज मांगों को पूरी करनी चाहिए। लेकिन मैं यह नहीं मानता कि कुछ प्रशासनिक या कानूनी कदम कदम उठा देने भर से बलात्कार की घटनाओं पर पूरा काबू पाया जाएगा। क्यों कि एक बलात्कारी एक अपराध का दोषी हो सकता है,बलात्कार की सामाजिक मानसिकता का दोषी नहीं। यहां तो कॉलेज,दफ्तर,पार्टी प्वाइंट,गली,मोहल्ले में बुरी मानसिकता के लोग मौके की तलाश में रहते हैं। मौका मिलते ही विपरीत लिंगी के   अंग,प्रत्यंग,शारीरिक,मानिसक प्रसंग,लबो-लिबास पर हाथ डाल देते हैं। कम से कम उंगली तो उठा ही देते हैं। पीड़ित की भावनाएं तो आहत होती ही हैं। घर में पती के न जाने कितने बलात्कार पत्नी को सहने पड़ते हैं। यह भारतीय समाज का मूल हिस्सा नहीं रहा है।
जबकि बाजार ने महिलाओं को बडेÞ उपभोक्ता समूह में उभारने की कोशिश की,पश्चिमी खुली जीवन शैली और सोच का प्रकोप बढ़ा तब से महिला पुरुष के बीच टकराव भी बढ़ गया। महिला प्रदर्शनकारियों की कई अगुवों को मैनें टीवी पर सुना। वे कहती हैं कि वे हर उस जगह जायेंगे,जहां पुरूष रोजाना के काम के अलावा मनोरंजन के भी जाते हैं। इसकी उन्हें आजादी चाहिए। हमारे भारतीय समाज में नारी को घर की इज्जत और लक्ष्मी समझा जाता रहा है। उनक ी हैसियत के बराबर उनके हक का सम्मान उनको मिलता रहा है। लेकिन उपभोक्तावाद ने भारतीय महिलाआें में खासकर लड़कियों को समझा दिया है कि इज्जत और देवी के नाम पर उन्हें गुलाम बनाकर रखा जाता रहा है। अब वे आजादी चाहने लगी हैं। मिलना भी चाहिए। बराबरी का हक देने में कोई एतराज भी नहीं होन चाहिए। उनके हक की आवाज भी राजनीत,समाज और बाजार के एक पुरूष वर्ग द्वारा जोरशोर से उठायी जा रही है। लेकिन समाज को यह मांग पचा पाने के स्तर तक विकसित नहीं किया जा रहा है। समाज स्टेटिक मॉड में चल रहा है,जबकि महिलाएं डायनेमिक मॉड में आ चुकी हैं। कैसे संभव है कि उनकी समाज उनकी हर मांग मान ले। जहां पुरूष और महिला की परंपरागत और खुली इच्छाओं और वर्चस्व का टकराव होता है,वहां अक्सर बलात्कार की घटनाएं होती हैं। महिला न्याय की मांग करने वाले लोग ही अपने घरों में बेटे-बेटियों की अभिभावकी में भेदभाव करते हैं। पत्नी पर न जाने कितने मानसिक जुल्म ढाते हैं। जब तक वहां से बदलाव की एक चिनगारी नहीं लिकलेगी। ‘दिल्ली’ घेरने का बहुत फायदा नहीं होगा। असल घेराव घर में बनी ‘रायसीना हिल्स’ का होना चाहिए। वहां से मांग उठनी चाहिए। यह मायने नहीं रखता कि उस आंदोलन का अगुवा कौन होगा,हो भी या नहीं होगा,लेकिन उस आंदोलन की नदी जब फूटेगी तो अपना रास्ता खुद ब खुद बना लेगी। जो उसका रास्ता रोकेगा,उसे भी अपने साथ बहा ले जाएगी। तब न लोगों को बार-बार दिल्ली घेरने की जरूरत पड़ेगी और सरकार को जवाब दो के नारे सुनने पड़ेंगे। मीडिया को जवाब दो पत्रकारिता से हटकर घरों आंदोलन खड़ा करने के लिए जरूरी भावनाएं लोगों में पैदा करनी पड़ेगी।