बुधवार, जून 06, 2012

आ गयी बारिश बुझाने प्यास धरती की


ग्रीष्म ऋतु का सूर्ख मौसम,तपती धूप,चिलचिलाती गर्मी,हवाओं की तपिश,जलाती लू के थपेड़ों और सूरज की अगियारी सीधी,तिरछी किरणों से धरती का जल रहा बदन अब भीगने वाला है। इसकी प्यास बुझने वाली है। धरती की तपन और इसक ी तड़प के एक मात्र समझदार बादल इससे मिलने को आतुर हैं। इस कदर व्याकुल हैं कि प्रकृति पर ग्रीष्म ऋतु द्वारा लगाये गये सारे बंधनों की सारी सीमाआें को तोड़ डालना चाहते हैं। मौसम से पंगा लेकर वे धरती के साथ वही संबंध स्थापित करना चाहते हैं,जिसकी चाहत समाज की लक्ष्मण रेखा के आर-पार तड़पते प्रेमी जोड़े की होती है। कोई भी व्यक्ति या समय अपने साम्राज्य को मिलने वाली चुनौती के सामने आसानी से हार नहीं मानता। लेकिन बादल ने वर्षा ऋतु के प्रथम दिवस को धरती का आलिंगन कर यह संकेत दे दिये हैं कि वे अब बरसने वाले हैं। उमड़-धुमड़कर,टूट कर। धरती की प्यास बुझाकर तड़प को शांत करने वाले हैं।
                    दरअसल, भारतीय पांचांग के अनुसार आषाढ़ का महीना लगने के साथ वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है। मंगलवार को आषाढ़ का पहला दिन था। बादलों ने झमाझम बरसात से इस ऋतु का स्वागत किया। इनकी पहली बूंदें धरती से ऐसे लिपट गयीं,जैसे वह आलिंगन कर रही हों। बारिश की बूंदों से लिपटते ही धरती से निकलने वाली छांय,छांय की आवाज उसकी तपिश और तपन के स्तर का संकेत दे रही थीं। ऋतु के पहले दिन बादलों का धरती से पहला मिलन एक जोड़े की सुहाग रात की तरह एहसास करा गया है। दरअसल यह मोटे और सतही अर्थाें में सिर्फ बादलों का बरसना है। लेकिन गहरे अर्थाें में यह केवल वर्षा ही नहीं बल्कि आस है। धरती की,किसानों की। यह उम्मीद कि अब उमड़ते-घुमड़ते बादलों के टूट के बरसने से धरती की प्यास बुझेगी। इसके पोर-पोर भर जाऐंगेऔर शरीर ढीला हो जाएगा। इसके पांव भारी होंगे। बीज अंकुरित होंगे और फिर फसलों के उगने के साथ ही चारों तरफ हरियाली छा जाएगी। धरती के आंचल खुशियों से भर जाएंगे।
                  धरती का इतना तपना भी जरूरी है। प्रकृति का दैहिक व्याकरण की कुछ ऐसी रचना है कि यौवन जब तप जाता है,तो और अधिक उर्वर एवं उपजाऊ हो जाता है। यौवन जब तपता है,तो वह ऐंद्रिक जरूरतों को चरम तक बढ़ा देता है। इस स्थिति में युगलों का सांगोपांग मिलन का सुख चरम पर होता है और उत्पादकता की संभावना भी उच्च स्तर की होती है। धरती की यौवना वसंत ऋतु के संग शुरू हो जाती है। वसंत के मोहक वातावरण में धरती हंसती,खेलती कब पूरी तरह जवान हो जाती है,उसे पता तक नहीं चलता। ग्रीष्म की आहट के साथ ही उसके बदन कशमसाने लगते हैं। इस ऋतु के बढ़ते क्रम में उसका यौवन तपने लगता है। जेठ का महीना उसे इतना जलाता-तड़पाता है कि बादलों से ऐसा देखा नहीं जाता है। वह अपनी धरती से दूर रहते हुए उससे मिलने को आतुर हो उठते हैं। इनका उमड़ना-घुमड़ना यह संकेत देता है कि वे प्रकृति के सारे बंधनों की सारी सीमाओं को तोड़कर धरा से मिलने को व्याकुल हैं। आषाढ़ का प्रथम दिन दोनों के मिलन का सर्वाधिक उपयुक्त समय होता है। इसके बाद तीन महीने तक इनका मिलना सिद्ध हो जाता है। जैसे विवाह बंधन में बंधने के बाद पति-पत्नी का। इन तीन महीनों के अलावा अन्य किसी महीने में बरसात हो जाय,तो लो बिन मौसम बरसात कह देते हैं। यानी कि यह बादल और धरती के मिलन का उपयुक्त समय नहीं है। विषयी संबंधों पर ऐसा ही नजरिया हमारे समाज का भी है। लेकिन सावन में बारिश की फुहार सबको अच्छी लगती है। धरती का बदन निखर जाता है। चेहरा खिल जाता है। सतह पर बिछलाहट,फिसलन होती है। जैसे संभोग सूत्र का पालन करने वाली किसी युवती के कसे हुए बदन पर चुस्त त्वचा की चिकनाहट। इस महीने में धरती सुहागन लगने लगती है। भाद्रपद में हर तरफ कीचड़,गीलापन। लगता है कि जैसे उसका शरीर ढीला हो गया है। पांव भारी हो गये हैं। एक गर्भवती स्त्री की तरह। उसके बाद वह धानी हो जाती है। उसके आंचल से फसलों के रूप में आने वाली संतान के साफ संकेत मिलते हैं। त्योहारों के रूप में खुशियों के दिन आ जाते हैं। फसलों पर लदी बालियों को देखकर कृषकों के चेहरे पर खुशी नाचने लगती है। लेकिन यह एक जीवन चक्र है। हमारी उम्र लगभग 100 साल ही होती है। इस लिए हम एक चक्र ही पूरा कर पाते हैं। धरती का जीवन कितना लंबा है,यह वैज्ञानिक गणित का विषय है। इसलिए हमारी कई पीढ़ियां कई युगों तक धरती के जीवन चक्र को देखती, सोचती, समझती और सीखती रहती हैं।

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