सोमवार, दिसंबर 03, 2012

दंगा पीड़ितों के ज़ख्म-ओ-दर्द की नुमाइश

यह लेख प्रथम प्रवक्ता हिंदी पाक्षिक पत्रिका के नवंबर के शुरुआती अंक में प्रकाशित हो चुका है।                                                                                                                                                                                       गुजरात दंगों पर केंद्रीत चार दिवसीय कार्यक्रमों का एक बड़ा आयोजन पिछले दिनों 9 से 13 अक्टूबर के बीच जामिया मिल्लिया इस्लामिया में किया गया। किसी अकादमिक परिसर में गुजरात दंगों पर इतनी बड़ी बहस पहली दफा हो हुई। अहम बात यह कि दस साल बाद ‘दंगों’ को इसके कानूनी अर्थ से आगे निकालकर जेनोसाइट(नस्ली कत्लेआम,नरसंहार,जातीय वध) साबित करने की पूरी कोशिश की गयी। इस दौरान दंगा पीड़ितों के मौजूदा हालात और लापता लोगों की फोटो प्रदर्शनी भी लगायी गयी थी। और बगल में शाम को गाना-बजाना कर माहौल को खुशनुमा बनाया जाता था। आयोजकों का कहना है कि यह नुमाइश लोगों को त्रासदी के शिकार हुए लोगों को याद करने, पीड़ितों के हालात को दिखाने ‘तथा समझाने के लिए लगायी गयी थी। ताकि पीड़ितों के साथ इंसाफ हो सके। लेकिन कार्यक्रमों से निकले संकेत बता रहे थे कि यह इंसाफ के लिए नहीं बल्कि दंगा पीड़ितों के नाम पर एक समुदाय विशेष की सहानुभूति हासिल करने,उनमें सांप्रदायिक लड़ाई का जज्बा पैदा करने के सियासी इरादे से की गयी दंगा पीड़ितों के जख्मों-दर्द की नुमाइश थी। यह ऐसे समय में की गयी,जब कि गुजरात में चुनावी जंग का ऐलान हो चुका है। आयोजक इस आयोजन को गुजरात की चुनावी सियासत से अलग बताने की लाख कोशिश करें,लेकिन सवाल अनुभवों की जमीन पर उठ रहे हैं।
             इस आयोजन के कई हिस्से थे। जामिया के एमएफ हुसैन आर्ट गैलरी में दंगा पीड़ितों के मौजूदा हालात,दंगे में लापता हुए लोगों की तश्वीरें,मुस्लिम बाहुल्य इलाक ों में गंदगी, तथा रोते हुए बुजुर्ग एवं बच्चों की फोटो प्रदर्शनी लगायी गयी थी। कहें कि मुस्लिम समुदाय से जुड़ी स्वाभाविक नाकारात्मक परिस्थितियां पर अधिक फोकस किया गया था। जामिया अल्पसंख्यक संस्थान है। यहां के समुदाय विशेष के लोेग जब इसे देखेंगे,तो उन पर इनका उग्र प्रभाव हो सकता है। प्रभाव ही पैदा नहीं करना है,तो आयोजन के पहले दिन प्रदर्शनी की कवरेज सबसे पहले इरान रेडियो की ओर से की गयी। ईरान के टेलिविजन नेटवर्क को आयोजकों की बाइट और प्रदर्शनी की फुटेज भेजी।  सरकार की आपत्ति पर एडिटर्स गिल्ड ने इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए ह्दय विदारक दृश्यों एवं भावनाएं भड़काने वाली फुटेज को दिखाने पर रोक लगा दी है। लेकिन यह कौन कहेगा कि जामिया जो प्रदर्शनी से लगायी गयी है,उससे समुदाय विशेष के लोगों की भावनाएं नहीं भड़क सकती हैं? सवाल असल में केवल मास अवेयरनेस(जन जागरूकता) पैदा करने का है,तो फिर ये प्रदर्शनी डीयू जैसे भारी छात्र संख्या वाले और जेएनयू जैसे शोध स्तर की समझदारी रखने वाले शिक्षण संस्थानों में लगायी जानी चाहिए थी। लेकिन इसके लिए जामिया का ही चुनाव आयोजकों की नियत पर शक पैदा करता है। कहा जा रहा है कि ऐसा कार्यक्रम चुनावों के पहले या बाद में भी हो सकता था। अकादमिक परिसर में साफ-सूथरी बहस होनी चाहिए। लेकिन जामिया में आयोजित यह बहस बिल्कुल एकतरफा और इसका समय भी आपत्ति जनक है।  है। यहां ‘गोधरा’ पर नहीं केवल ‘गुलबर्ग’ पर चर्चा हो रही है। इस आयोजन का थीम ही है ‘मेमोरियल टू ए जेनोसाइड:गुलबर्ग गुजरात 2002-2012’। इसमें कुल तीन खुली बहसें हुर्इं। पहली बहस का विषय था ‘मेमोरियल एज रेजिस्टेंस’। इसमें नामचीन वामपंथी इतिहासकार प्रोफेसर रोमिला थॉपर ने कहा कि गुजरात में 2002 में जो हुआ वह जेनोसाइड(जनसंहार,नस्ली कत्लेआम) था,इसे सामान्य दंगा नहीं कहा जा सकता है। गुजरात दंगों से लेकर अब तक के दस सालों में मोदी प्रशासन  केवल राज्य को प्रगतिशील दिखाने का बार-बार नाटक करता रहा है। यदि वास्तव में वहां सुशासन है,तो गोधरा कांड में आरोपी बनाये गये सभी लोग अब तक सलाखों के पीछे क्यों हैं? अब तक पीड़ितों को क्षतिपूर्ति नहीं की गयी। उन्होंने कहा कि मोदी का गुजरात एक सेक्यूलर राज्य बिल्कुल नहीं है। शासन का तरीका भारतीय संविधान के कई मौलिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि ‘गुजरात-2002’ कभी भुला नहीं जाना चाहिए। अनुस्मृति किसी भी समाज की नैतिक जिम्मैदारी है। आप अपने भविष्य के लिए कैसा सपना संजोया है,इस पर यह निर्भर करता है कि इस जनसंहार को आप किस तरीके से याद रखेंगे। लेकिन सवाल है कि क्या समुदाय विशेष अपने भविष्य के सपने खुद देखता है या किसी और के सपनों को साकार करने के लिए उन्हें भावनात्मक रूप से मजबूर कर दिया जाता है। क्या उनक ी राजनीति-सामाजिक-सांस्कृति रहनुमाई करने वाले उनके सपने को साकार करने की कोशिश करते हैं या फिर उन सपनों का सौदा करते हैं। इसी सत्र में एक्टिविस्ट मुकुल मांगलिक ने कहा कि यह त्रासदी कभी भूलायी नहीं जानी चाहिए। न्याय होने तक इसे याद रखा जाना चाहिए।
 यह धर्मनिर्पेक्षता,लोकतंत्र तथा आधुनिक संघवाद पर हमला था। समाज शास्त्री शिव विश्वनाथन ने कहा कि असल में गुजरात विकसित है। लेकिन वहां के शासक ने 2002 की त्रासदी को भुलाने के लिए ‘विकासशील’ शब्द का इस्तेमाल किया। रोमिला थापर और शिव विश्वनाथन के बयानों से गुजरात में विकास में इनमें आपसी मतभेद साफ जाहिर   होता है। खैर एक गुजरात की स्थिति को इतिहास के चस्मे से और दूसरा समाज शास्त्र के चस्मे से देख रहा है। मतभेद स्वाभाविक है। लेकिन इस चार दिवसीय आयोजन के दौरान जो चीजें छुट गयीं,जिनकी अनदेखी कर दी गयी,वह अब सवाल बन गयी हैं। यह कि इस बड़ी बहस के दौरान दंगा पीड़ितों के मौजूदा हालात को सुधारने और उन्हें जीवन की मुख्य धारा में लाने की कोशिशों पर कोई चर्चा नहीं हुई। केवल मोदी प्रशासन में खामियां निकालकर उन्हें कई तरीके से दोषी ठहराने की कोशिश की गयी। उन्हें सबसे बड़ा गुनाहगार ठहराने की कोशिश की गयी। चुनावों के मौसम में मोदी के खिलाफ ऐसी चर्चा उनके खिलाफ एक समुदाय विशेष में राजनीतिक लामबंदी की ओर से इशारा करती नजर आयी। सवाल यह भी उठा कि कहीं मोदी अपने पर लगे हिंदूत्व के ‘कलंक’ को ही सियासी ‘चंदन-तिलक’ बनाने के लिए तिस्ता सितलवाड़ जैसे सांप्रदायिक लाड़ाकू  तो नहीं पाल रहे हैं। ताकि ऐसे कार्यकर्ता गुजरात दंगे के नाम पर मुस्लिमों को गोलबंद करते रहें और इसके खिलाफ गुजरात के हिंदुआें को एकजुट करने में मोदी को दिक्कत ना हो। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि गुजरात दंगों के बाद से वहां मुस्लिम लाड़ाई नाम पर मुस्लिमों को एकजुट करने की जितनी कोशिश की गयी,हिंदू उतने ही एकजुट होते गये और मोदी को विधान सभा चुनावों में आसानी से स्पष्ट बहुत हासिल होता गया। इस कार्यक्रम के आयोजक एनजीओ ‘सीटीजेन फॉर जस्टीस एंड पीस’ की सेक्रेटरी से जब इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कन्नी काटते हुए कहा कि इसका सटीक जवाब मोदी ही दे सकते हैं। इस आयोजन में एक खुली बहस दंगा पीड़ितों के पक्ष में न्याय और मीडिया की भूमिका विषय पर चर्चा हुई। इसमें तिस्ता सितलवाड़ ने प्रतिभागी छात्रों की ओर से सवाल उठाया कि मीडिया मोदी को ही क्यों हथेली पर उठाये रखती है। भाजपा के अन्य नेताआें की चर्चा पीएम इन वेटिंग के लिए क्यों नही होती। इस पर राजदीप जैसे बड़े पत्रकारों ने सधे अंदाज में जवाब दिया। लेकिन सवाल तिस्ता के मोदी विरोध अभियान से जुड़े हैं। तिस्ता के एनजीओ ‘सीजेपी’ का एक उद्देश्य सांप्रदायिक सद्भाव के लिए माहौल बनाना है। लेकिन दंगों की भूली हुई भयावह तस्वीर में फिर से रंग भरकर क्या यह काम हो सकता है। क्या पीड़ितों के समुदाय की भावनाआें में दंगे की प्रदर्शनियों के सहारे लहर पैदा कर यह नेक इरादा पूरा किया जा सकता है। जवाब यदि नहीं है,तो जामिया में लगायी गयी दंगों की प्रदर्शनी और एकतरफा बहसों के आयोजक ‘सीटीजेन फॉर जस्टीस एंड पीस’ और इसकी सचिव तिस्ता सितलवाड़ के इरादे पर शक पैदा होना स्वभाविक है। सांप्रदायिक राजनीति की बेदी पर शिकार हो रही जिंदगियों क े गÞम में ही किसी शायर ने शेर का यह मक्ता लिखा होगा कि ‘हमको आता नहीं जख्मों की नुमाइश करना,खुद ही रोते हैं,तड़पते हैं,बहल जाते हैं।’ तो ‘गाÞलिब ने भी लिखा कि दिल को बहलाने का यह ख्याल अच्छा है गालिब’। तो क्या इन शेरों में भरे अनुभवों पर तिस्ता सितलवाड़ जैसे सांप्रदायिकता के लड़ाकुओं को यकीन नहीं है। यदि है कि तो फिर दंगा पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाने की जगह वे समय के साथ उनके घावों में पर पड़ रही पपड़ियों को निकोट कर खुन-खुन क्यों कर रहे हैं। इससे ‘बौद्धिक दंगा’ भड़क ने का खतरा है।

गुजरात दंगा पीड़ितों की लड़ाई लड़ रही तिस्ता सितलवाड़ से बातचीत-

 इस प्रदर्शनी और ऐसे आयोजन का मकसद क्या है?
सितलवाड़- ताकि लोगों को 2002 की गुजरात त्रासदी के प्रति जागरुक किया जा सके। उनके साथ हुई ज्यादती को याद करें, दंगा पीड़ितों के मौजूदा हालात को लोग समझें। अपनी राय बनायें। ताकि उनके साथ न्याय की मांग उठे और वास्तव में उन्हें न्याय मिल सके।

गुजरात दंगा से जुड़ी प्रदर्शनी जामिया में लगाने का क्या मकसद है?
सितलवाड़- गुजरात दंगों की दसवीं वरसी पर हमने पहली बार फरवरी 2012 में गुलबर्ग(गुजरात) में इस जनजागरुकता कार्यक्रम का आयोजन किया था। तभी जामिया के कुलपति ने हमसे आग्रह किया था कि यह कार्यक्रम जामिया भी किया जाना चाहिए। तब से लेकर अब तक देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम कर रहे गैर सरकारी संगठनों ने भी इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। व्यस्तता में समय नहीं मिला। लेकिन कुलपति के अग्रह पर इस बार यह कार्यक्रम जामिया में किया गया।

 ऐसे जनजागरुकता कार्यक्रम डीयू या जेएनयू में होना चाहिए। लेकिन वहां क्यों नहीं किया गया?
सितलवाड़- डीयू और जेएनयू ने हमसें संपर्क नहीं किया। हम तो चाहते हैं कि देश में अधिकाधिक जगहों पर यह कार्यक्रम हो। यदि दिल्ली का या देश के अन्य शिक्षण संस्थान संपर्क करते हैं,तो वहां भी यह कार्यक्रम होगा।

गुजरात में चुनावी जंग के ऐलान के साथ ही दिल्ली में ऐसे कार्यक्रम को फोकस करने का क्या कमसद है?
सितलवाड़- गुजरात में होने जा रहे विधान सभा चुनावों से इस आयोजन का कोई मतलब नहीं है। दस साल हो गये। इतने सालों बाद भी पीड़ितों को न्याय नहीं मिला। हम तो इस कार्यक्रम से यही सवाल उठा रहे हैं कि न्याय में इतनी देरी क्यों?

आप दंगों और आरोपियों के खिलाफ लड़ाई के नाम पर एक मुस्लिम समुदाय को लोगों को एकजुट करती हैं,तो क्या इसका फायदा गुजरात में हिंदुओं को आसानी से एकजुट करने में मोदी   को नहीं मिलता?
सितलवाड़- आपके इस सवाल का सटीक जवाब मोदी ही दे सकते हैं। यदि फायदा उनको हो रहा होगा तो वे ही बतायेंगे। इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है।

आपके एनजीओ ‘सीटीजन फॉर जस्टीस एंड पीस’ की साइट के मुताबिक आप विदेशी सहयोग नहीं लेतीं। क्या ये सही है? तो फिर फंड कहां से आता है?
सितलवाड़- भड़क ते हुए... कहां लिखा है ऐसा? मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। मैं समझ गयी आप क्या जानना चाहते हैं। मैं आपके सवालों का जवाब नहीं दे सकती। क्षमा करें। मीडिया में आरएसएस की पहुंच बहुत हो गयी।

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