शनिवार, अक्तूबर 20, 2012

... तो क्या आतंकवाद है ‘चक्रव्यूह’ का ईशारा?


   प्रकाश झा की बहुप्रतीक्षित नई फिल्म ‘चक्रव्यूह’ 24 अक्टूबर से सिनेमाघरों में आ रही है। टीबी और अखबारी पत्रकारों ने झा के मुंह में अपने शब्द डाल-डालकर बहुत कोशिश कर ली है कि वे इस फिल्म के मूल संदेश का ईशारा भर भी कर दें,तो लंबा फुटेज और लंबी खबर तान दी जाय। लेकिन आखिर कितना भी क्रांतिकारी निदेशक ऐसा क्यों करेगा? सो,प्रकाश भी टाल मटोल बातें करते हुए पत्रकारों को भी फिल्म देखने और संदेश को समझने की सलाह दे रहे हैं। पर इतना उन्होंने जरूर कह दिया है कि इस फिल्म में दो दोस्तों का नक्सलवाद से जुड़ने और फिर जुझने की ऐसी कहानी है,जो एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा लेकर आती है,जो देश के बाहर भी समस्या बन गया है। साफ है कि इस फिल्म की कहानी का केंद्रीय विषय देश के कुछ प्रदेशों को ‘लाल चादर’ से ठीक वैसे ही ढक लेने वाली विचाराधारा है,जैसे होलिका ने प्रह्लाद को ढक लिया था। लेकिन इसके प्रभाव ने वह कौन सी समस्या पैदा कर दी है,जो दूसरे देशों में भी बड़ा मुद्दा बन गया है। प्रकाश झा रीलबंद बीकाउ माल को बाजार में आने से पहले भले ही खोलना नहीं चाहते हैं, लेकिन उनकी बातों से ऐसा लगने लगा है कि फिल्म ‘आतंवाद’ का मुद्दा खड़ा करती है।
        आज बॉलिवुड में जैसी फिल्मों दौर चल रहा है,उसमें सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को वैचारिक कैमरे से देखने को शायद निर्माताआें, निर्देशकों ने व्यवयसाय की दृष्टि से जोखिमभरा काम समझ लिया है। शायद इसीलिए शुद्ध फैंतासी रची जा रही है। बाजारवादी भौतिकतावाद की नव आर्थिकी के एक ही रंग में रंगी फिल्में ‘श्यामश्वेत’ लगने लगी हैं। इन्हें रंगीन करने के लिए सामाजिक-राजनीतिक यथार्य के अनेक ‘रंगों’ को फिल्माना पड़ेगा। पर मौजूदा दौर में यह काम बड़ा मुश्किल लग रहा है। फिर भी प्रकाश झा, अब के आमिर खान,अनुराग कश्यप जैसे निर्देशकों ने उम्मीद जगायी है।  प्रकाश झा की पहचान एक ऐसे निदेशक की है कि जो बाजार और विचार दोनों को साधते हुए चलता है। उनकी अब तक की सभी फिल्मों ने कोई ना कोई ज्वलंत मुद्दा उठाया है,जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन की बड़ी समस्या है। चाहे वह अपहरण हो,राजनीति,गंगाजल या फिर आरक्षण। नई फिल्म ‘चक्रव्यूह’ भी प्रकाश झा की अलग लिक को आगे बढ़ाती दिख रही है। उनके हालिया प्रकाशित साक्षात्कारों के   हल्के इशारों पर कायम अनुमान के मुताबिक उन्होंने ‘चक्रव्यूह’ में नक्सलवाद की उत्पत्ति,माओवाद की हद तक इसका प्रसार और आतंकवाद से मिलाप का ‘संगम’ रचा है। यदि ऐसा है,तो वास्तव में यह अपने तरह के पहली फिल्म होगी। चैन की रोटी और सुकून की निंद हर आदमी की बुनियादी जरूरत है। लेकिन जब यही मुहाल हो,तो इसकी पूर्ति के लिए आदमी कुछ भी कर सकता है। भारत में 60 सालों से रोटी,कपड़ा और मकान जैसी मौलिक जरूरतें एक मुद्दा बनी हुई हैं। जो सरकारों के लिए शर्म की बात है। लेकिन इस समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो सका। बल्कि असीमित विकास के हिमायती हुक्मरानों में ही जंगल और जमीन की कारपोरेटी भूख जा गयी। रोटी,कपड़ा और मकान की यह लड़ाई जल,जंगल और जमीन तक फैल गयी। अब तो इसमें शिक्षित बेरोजगार भी शामिल होने लगे हैं। विकास के नाम पर जमीनें हड़पकर और छोटे-छोटे धंधों को खत्म कर दिया गया है। जिन हांथों में कम से कम हंसिया और हथौड़ा भी रहना चाहिए था,उन हाथों में बंदूकें पहुंच गयी। माना कि कुछ विनाशकारी-षड्यंत्रकारी शक्तियों ने गरीबी का नाजायज फायदा उठाया। लेकिन सरकारों ने भी गरीबों को षडयंत्र से बचने लायक नहीं बनाया। सुरक्षा ऐजेंसियों के हवाले सरकार भी यह मानने लगी है कि सीमापार के आतंकवादी संगठन देश में अपनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए नक्सलवादियों का सहारा लेने लगी हैं। कई मौकों पर यह भी बात सामने आयी है कि नक्सलियों को पड़ोसी मुल्क में चल रहे आतंकी शिविरों में आतंकी प्रशिक्षण देकर वापस भेज दिया जाता है। यहां वे सीमापार के आतंकी संगठनों की विनाशकारी योजनाआें को अंजाम देते हैं। आरोप जब आतंकवादी संगठनों पर लगता है,तो वे अपने सदस्य को भारतीय बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं। क्या गारंटी है कि नक्सलियों-माओवादियों को प्रशिक्षित कर दूसरे देशों में आतंकी योजनाओं को अंजाम देने में दहशतगर्द संगठन इनका इस्तेमाल नहीं करते होंगे? आतंकी संगठनों की ओर से उन्हें भारी रकम और परिवार की सुरक्षा का लालच दिया जाता है। यह भी सामने आया है कि आतंकी संगठनों की ओर से नक्सलियों को हथियार और आर्थिक मदद भी पहुंचायी जा रही है। एक पड़ोसी मुल्क से माओवादियों को पैसे और असलहे की पूर्ति की जाती है। माओवादियों ने नक्सलियों का ऐसा इस्तेमाल किया कि अब दोनों में फके ही मिटता जा रहा है। इन घुलेमिले संगठनों को सहोदर पड़ोसी मुल्क के आतंकी संगठनों से भी मदद पहुंचायी जा रही है। इससे भारत तो विनाशकारी षड्यंत्र के इस ‘चक्रव्यूह’ में फंसता ही जा रहा है। दससे दुनिया की बड़ी शक्तियों को भी चुनौती मिलने लगी है। प्रकाश झा का इशारा यदि यही है,तो सरकार को गंभीर होने की जरूरत है।

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