नाच,यदि दर्शकों की संवेदना और उनके सरोकारों से जुड़ा हो तो वह नृत्य का दर्जा हासिल कर लेती है। नर्तकी को आप रंडी नहीं कह सकते। मीडिया कभी-कभी कॉरपोरट की लय और उद्योगपतियों की ताल पर नाचता जरूर है। वह बाजार से इनाम में पूंजी लेता है। लेकिन मीडिया-नृत्य के दर्शक(समाज) उसकी इस कलाकारी को गलत ठहराते हुए उसे रंडी कहना शुरू कर दें,यह खुद अपनी जरूरतों को गाली देने से कुछ कम नहीं है। दर्शकों में से कुछ ऐसे भी होते हैं, नर्तकी की सुंदर,रसीली,कसीली देह को देखकर जिनकी वासना जाग जाती है। वे उसकी देह का भोग भी करना चाहते हैं। उसके साथ हमबिस्तर भी होना चाहते हैं,और वासना की भूख मिटाने के बाद उसे रंडी भी कहते हैं। किसी भी लोकतंत्र में मीडिया की जरूरत और उसकी अहमियत निर्विवाद रूप से सिद्ध है। चूकि मीडिया भी हमारे समाज का ही एक हिस्सा है,इसलिए इसमें खामियां हो सकती हैं। लेकिन आलोचकों को समझना चाहिए कि उनका काम भी मीडिया के बिना के नहीं चल सकता है। वे यह भी अपेक्षा करते हैं कि उनकी आलोचनाओं का प्रकाशन अखबारों में हो,टीवी पर चलायी जाय। वे मीडिया से सटे रहना चाहते हैं। वे मीडिया के साथ बिस्तर पर सोना भी चाहते हैं और आलोचना के बहाने उसे गाली भी देते हैं। यह दोहरा चरित्र कितना उचित है!
आज समाज का एक ऐसा तबका खड़ा हो गया है जो मीडिया में कारपोट और बाजार की पैठ को आधार बनाकर उसकी खूब आलोचना कर रहा है। पेड न्यूज का मामला हो,जन सरोकारों की अनदेखी का मामला हो,जल-जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दों का मामला हो, इन सारे सवालों की बौछार कर मीडिया को वेधा जा रहा है। किसी-किसी मंच से तो मीडिया के घोर आलोचक उसे बाजार और कारपोरट का रखैल करार दे देते हैं। कुछ दिन पहले एक सेमिनार में मीडिया के प्रोफेशन और एजुकेशन से जुड़े कुछ जानकार लोग जुटे थे। मीडिया में शोध की जरूरत पर एक परिचर्चा थी। इसके प्रतिभागी के तौर आईआईएमसी एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान ने कहा कि मीडिया समाज को जोड़ने की जगह तोड़ रहा है। आज चुनावों में राजनीतिक दल के कार्यकर्ता वोट मांगने के लिए मतदाताआें से मिलने घर-घर नहीं पहुंचते। बल्कि वे मीडिया के इस्तेमाल से ही लोगों से संपर्क बनाते हैं और उन्हें अपनी ओर खींचने की कोशिश करते हैं। यह इससे जनता और राजनीतिक दलों के बीच एक गैप पैदा होता जा रहा है। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया कारपोरेट के लॉबिंग करता है। बाजार के इशारे पर एजेंडा तय करता है। बाजार की,कारपोरेट की जो जरूरतें हैं,उनके लिए जनता और सरकारों के बीच माहौल तैयार करता है। फिर धीरे से जरूरत को एक विकल्प बनाकर पेश कर देता है। सरकार वही वैकल्पिक कदम उठाती है और इसका पूरा मजा बाजार लेता है। यह काफी हद तक सच भी है। ऐसी खामियों की आलोचना होनी चाहिए। आलोचना इस आधार पर भी होनी चाहिए कि जिस हथियार से हम भ्रष्टचार और अन्य तरह के कुप्रवृतियों के खिलाफ लड़ाई ठाने हुए हैं,उसकी समय-समय पर जांच भी होनी चाहिए। ताकि पता चल सके कि उसकी घार भोथरी तो नहीं हो गयी है। यदि भोथरी हो गयी है,तो उसपर फिर से धार चढ़ायी जा सके। लेकिन सवाल धार चढ़ाने तक का ही है। हथियार को फैंकने तक यह सवाल पहुंच जाता है तो फिर दूसरा सवाल यह खड़ा होगा कि है कि अखबार कौन चलायेगा,टीवी चैनल कौन चलायेगा? आज के बाजारू दौर में एक अखबार निकालने के लिए कम से कम सौ करोड़ रुपये की जरूरत है। एक टीवी चैनल चलाने के लिए इससे भी अधिक रकम की जरूरत है। ऐसे में यह मानना ही पड़ेगा कि अखबार और टीवी चैनल वही चला पायेगा,जिसके पास अरबों की संपत्ति है। वही पूंजीपति है। आज 20 पेज का अखबार आता है। एक अखबार पर असल खर्च 10 से 20 रुपये का है। लेकिन वह एक ,दो या तीन रुपये में लोगों के घर तक पहुंचाया जा रहा है। जिस अखबार का सर्कुलेशन अच्छा नहीं है,उनके मालिकों को तो और भी अधिक खर्च उठाना पड़ रहा है। यह सच है। आज के मीडिया जगत का यथार्थ है। इसे वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग भी मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि इसे कोई नहीं मानता तो फिर उसे ही अखबार और चैनल चलाने के लिए आगे आना होगा। वे यह भी मानते हैं कि मीडिया में पूंजीवादी वर्चस्व तब तक बना रहेगा,जब तक वैकल्पिक मीडिया अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाएगा। इस काबिल नहीं हो जाएगा कि मीडिया की मुख्यधार को मोड़ सके। यह बात आम हो चुकी है कि आज मीडिया हाउसों में कारपोट घरानों का दबदबा बढ़ता जा रहा है। वे इनके शेयर के बड़े खरीद्दार हैं। इनमें पैसे पर मीडिया घराने चमक-दमक रहे हैं। लेकिन यह भी सच है, मीडिया को अपना काम करने से रोका भी नहीं जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकारों का तो आज भी मानना है कि उन्हें दलाली करने,लॉबिंग करने के लिए मालिकों की ओर से दबाव नहीं बनाया जाता है। वे काफी हद तक आजादी से काम करने के लिए आज भी स्वतंत्र हैं। और ऐसा हो भी रहा है। टीम अन्ना का आंदोलन इसका नजीर है। मीडिया पर आरोप है कि अन्ना आंदोलन उसी की शह पर खड़ा हुआ है। मीडिया कबरेज के चलते आदालतों को कई बंद मामले खोलने पड़ते हैं। कई मामलों में निर्णय पलट जाता है। मीडिया के चलते ही आज सरकार की फजीहत हो रही है। मीडिया राजनीतिक दलों और समाज के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका में खड़ा जरूर है,लेकिन मतदाता पहले से अधिक जागरुक हुए हैं। इतने जागरुक हुए हैं कि मीडिया उन्हें ठिक से उनका मिजाज भी नहीं पढ़ पाता और चुनाव में एक्जिट पोल भी हवा हो जाते हैं। मीडिया ने मध्यस्थ की भूमिका निभागकर लोगों को जागरुक किया है,उन्हें अपनी जमीनी समस्याआें को ठिक से देखने की नजर बख्शी है। आज हर तरफ मीडिया पर निगाह रखने की एक सिविल स्वतंत्र संस्था की मांग उठ रही है। कहा जा रहा है कि भारतीय प्रेस परिषद सरकारी संस्था बनकर रह गयी है। बिना दांत का शेर बनकर रह गयी है। जबकि मीडिया मनमाने ढंग से अपना काम कर रहा है। यदि मीडिया नीचे से उपर तक सबपर निगाह रखने का अधिकारी है,तो उसपर भी निगाह रखने वाली एक संस्था होनी चाहिए। ताकि उसके गलत कदमों को रोका जा सके और सही नियंत्रण बनाया जा सके। यह कितना जायज है,नाजायज है,इसका फैसला आप पर छोड़ता हूं। ं
आज समाज का एक ऐसा तबका खड़ा हो गया है जो मीडिया में कारपोट और बाजार की पैठ को आधार बनाकर उसकी खूब आलोचना कर रहा है। पेड न्यूज का मामला हो,जन सरोकारों की अनदेखी का मामला हो,जल-जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दों का मामला हो, इन सारे सवालों की बौछार कर मीडिया को वेधा जा रहा है। किसी-किसी मंच से तो मीडिया के घोर आलोचक उसे बाजार और कारपोरट का रखैल करार दे देते हैं। कुछ दिन पहले एक सेमिनार में मीडिया के प्रोफेशन और एजुकेशन से जुड़े कुछ जानकार लोग जुटे थे। मीडिया में शोध की जरूरत पर एक परिचर्चा थी। इसके प्रतिभागी के तौर आईआईएमसी एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान ने कहा कि मीडिया समाज को जोड़ने की जगह तोड़ रहा है। आज चुनावों में राजनीतिक दल के कार्यकर्ता वोट मांगने के लिए मतदाताआें से मिलने घर-घर नहीं पहुंचते। बल्कि वे मीडिया के इस्तेमाल से ही लोगों से संपर्क बनाते हैं और उन्हें अपनी ओर खींचने की कोशिश करते हैं। यह इससे जनता और राजनीतिक दलों के बीच एक गैप पैदा होता जा रहा है। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया कारपोरेट के लॉबिंग करता है। बाजार के इशारे पर एजेंडा तय करता है। बाजार की,कारपोरेट की जो जरूरतें हैं,उनके लिए जनता और सरकारों के बीच माहौल तैयार करता है। फिर धीरे से जरूरत को एक विकल्प बनाकर पेश कर देता है। सरकार वही वैकल्पिक कदम उठाती है और इसका पूरा मजा बाजार लेता है। यह काफी हद तक सच भी है। ऐसी खामियों की आलोचना होनी चाहिए। आलोचना इस आधार पर भी होनी चाहिए कि जिस हथियार से हम भ्रष्टचार और अन्य तरह के कुप्रवृतियों के खिलाफ लड़ाई ठाने हुए हैं,उसकी समय-समय पर जांच भी होनी चाहिए। ताकि पता चल सके कि उसकी घार भोथरी तो नहीं हो गयी है। यदि भोथरी हो गयी है,तो उसपर फिर से धार चढ़ायी जा सके। लेकिन सवाल धार चढ़ाने तक का ही है। हथियार को फैंकने तक यह सवाल पहुंच जाता है तो फिर दूसरा सवाल यह खड़ा होगा कि है कि अखबार कौन चलायेगा,टीवी चैनल कौन चलायेगा? आज के बाजारू दौर में एक अखबार निकालने के लिए कम से कम सौ करोड़ रुपये की जरूरत है। एक टीवी चैनल चलाने के लिए इससे भी अधिक रकम की जरूरत है। ऐसे में यह मानना ही पड़ेगा कि अखबार और टीवी चैनल वही चला पायेगा,जिसके पास अरबों की संपत्ति है। वही पूंजीपति है। आज 20 पेज का अखबार आता है। एक अखबार पर असल खर्च 10 से 20 रुपये का है। लेकिन वह एक ,दो या तीन रुपये में लोगों के घर तक पहुंचाया जा रहा है। जिस अखबार का सर्कुलेशन अच्छा नहीं है,उनके मालिकों को तो और भी अधिक खर्च उठाना पड़ रहा है। यह सच है। आज के मीडिया जगत का यथार्थ है। इसे वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग भी मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि इसे कोई नहीं मानता तो फिर उसे ही अखबार और चैनल चलाने के लिए आगे आना होगा। वे यह भी मानते हैं कि मीडिया में पूंजीवादी वर्चस्व तब तक बना रहेगा,जब तक वैकल्पिक मीडिया अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाएगा। इस काबिल नहीं हो जाएगा कि मीडिया की मुख्यधार को मोड़ सके। यह बात आम हो चुकी है कि आज मीडिया हाउसों में कारपोट घरानों का दबदबा बढ़ता जा रहा है। वे इनके शेयर के बड़े खरीद्दार हैं। इनमें पैसे पर मीडिया घराने चमक-दमक रहे हैं। लेकिन यह भी सच है, मीडिया को अपना काम करने से रोका भी नहीं जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकारों का तो आज भी मानना है कि उन्हें दलाली करने,लॉबिंग करने के लिए मालिकों की ओर से दबाव नहीं बनाया जाता है। वे काफी हद तक आजादी से काम करने के लिए आज भी स्वतंत्र हैं। और ऐसा हो भी रहा है। टीम अन्ना का आंदोलन इसका नजीर है। मीडिया पर आरोप है कि अन्ना आंदोलन उसी की शह पर खड़ा हुआ है। मीडिया कबरेज के चलते आदालतों को कई बंद मामले खोलने पड़ते हैं। कई मामलों में निर्णय पलट जाता है। मीडिया के चलते ही आज सरकार की फजीहत हो रही है। मीडिया राजनीतिक दलों और समाज के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका में खड़ा जरूर है,लेकिन मतदाता पहले से अधिक जागरुक हुए हैं। इतने जागरुक हुए हैं कि मीडिया उन्हें ठिक से उनका मिजाज भी नहीं पढ़ पाता और चुनाव में एक्जिट पोल भी हवा हो जाते हैं। मीडिया ने मध्यस्थ की भूमिका निभागकर लोगों को जागरुक किया है,उन्हें अपनी जमीनी समस्याआें को ठिक से देखने की नजर बख्शी है। आज हर तरफ मीडिया पर निगाह रखने की एक सिविल स्वतंत्र संस्था की मांग उठ रही है। कहा जा रहा है कि भारतीय प्रेस परिषद सरकारी संस्था बनकर रह गयी है। बिना दांत का शेर बनकर रह गयी है। जबकि मीडिया मनमाने ढंग से अपना काम कर रहा है। यदि मीडिया नीचे से उपर तक सबपर निगाह रखने का अधिकारी है,तो उसपर भी निगाह रखने वाली एक संस्था होनी चाहिए। ताकि उसके गलत कदमों को रोका जा सके और सही नियंत्रण बनाया जा सके। यह कितना जायज है,नाजायज है,इसका फैसला आप पर छोड़ता हूं। ं
त्रिगुण जी, यह कोई नई बात नहीं है। जब से मैं पत्रकारिता में आया हूं तब से यह समस्या दिखाई दे रही है। लेकिन अभी तक सब साथी समस्याओं पर ही बात करते हैं। समधान की ओर कोई बहस होती ही नहीं। लिखा अच्छा है, बस समाधन की बात करने वालों में शामिल हो जाइए।
जवाब देंहटाएंबहुत विचारणीय बात कही आपने, बुद्धिजीवी वर्ग को सोचना चाहिये
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