किसी की शराब पीने से मौत होती है,तो लोग कह देते हैं, शराबी था। अगर दूध पीने से लोग बीमार होने लगें और मरने लगें तो इसे क्या कहेंगे? दूध भी इतना खतरनाक और जानलेवा हो सकता है। यह मानने के लिए लोग तैयार नहीं होंगे। किंतु,लोगों की सरकार तो मान रही है। अदालत में उसने माना है कि देश में बीकने वाला 68 फीसदी दूध दूषित और घटिया किस्म का है। इसकी वजह मिलावट बतायी गयी है। दूध में बैक्ट्रीअल संक्रमण ही जानलेवा हो सकता है। जबकि सरकार तो इसमें डिटर्जेंट,यूरिया और सोडा तक की मिलावट की बात मान रही है। यही दूध शिशुओं और किशारों को भी पीलाया जा रहा है। इससे मुख्य रूप से स्कर्वी,रिके ट्स,बेरी-बेरी,डायरिया जैसी भयंकर बीमारियां हो सकती हैं। बड़े पैमाने पर सफेद दूध के काले कारोबार का सवाल तो उठ रहा है। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल है कि क्या हम देश और समाज को एक बीमार पीढ़ी नहीं दे रहे हैं?
सरकार और मीडिया दूषित और विषाक्त दूध से बन रही मीठाइयां और मावा जैसे खाद्ध पदार्थाें को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं। लेकिन असल में यह सबसे जरूरी शिशु आहार है। चिंता इस बात की होनी चाहिए कि यदि डिटरजेंट,यूरिया,सोडा,शैंपू,रिफाइंड आॅयल, ईजी के मिलावट से बनने वाला दूध पीलाया गया तो क्या होगा। लेकिन पीलाया भी जा रहा है। सरकार का हलफनामा आने के दो-तीन बाद एक समाचार चैनल पर मिलावटी दूध के कारोबार पर एक रिपोर्ट दिखायी गयी। रिपोर्ट के बुलंद शहर के कुछ मिलावटखोरों की बाइट थी। इन्होंने नकली दूध बनाने के दो तरीके बताये। पहले तरीके में बाल धोने का शैंपू,रिफाइंड आॅयल,पानी और आधा लिटर दूध से करीब दस लिटर दूध बनाया जाता है। दूसरा तरीका इजी और अन्य रसायनों के इस्तेमाल से दूध बनाने का बताया गया। इन लोगों यह भी बताया कि मिलावटखोरी का यह कोई नया धंधा नहीं है,बल्कि 30-40 से चल रहा है। डेयरी कंपनियों की स्थानीय इकाइयों में काम करके ही उन्होंने मिलावटी दूध बनाने का तरीका सीखा है। इसमें बहुत मुनाफा है इसलिए अपना ही धंधा शुरू कर लिया। त्योहारी सीजन में दूध की मांग अचानक बढ़ने से उनपर दूध सप्लाई का दबाव बढ़ जाता है। ऐसे में वे इन्हीं तरीके से नकली दूध बनाकर दुकानदारों और हलवाइयों को पहुंचाते हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि इस तरीके से ये दूध बनाते हैं कि दूध की शुद्धता नापने वाले मीटर भी मिलावट की पहचान नहीं कर पाता। इनका कहना है कि साहब देखने और पीने से कोई इसे नकली नहीं कह सकता है। इससे भरपूर खोआ निकलता है,मिठाइयां बनती हैं। लोग भी पीते हैं और बच्चों को भी पीलाते हैं। बच्चों को आखिर बाजार का दूध क्यों पिलाया जाता है? आज के जिन किशोर-कंधों पर कल की जिम्मेदारियों का बोझ डाला जाने वाला है, उन्हें हम ठीक से पोष रहे हैं। यह अहम सवाल है। दुनिया के सभी चिकित्सकीय पद्धतियों ने यह माना है कि अनेक जीवन रक्षक तत्वों से युक्त मां का दूध शिशुओं के लिए संजीवनी होता है। यह दूध उनमें फौलाद भरता है। दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत से लड़ने के काबिल बना सकता है। लेकिन नौकरीशुदा माताओं को इस बात की भारी चिंता रहती है कि उनकी शारीरिक बनावट में चुस्ती गायब ना हो जाय। वे संतान को जन्म तो दे देती हैं,लेकिन कसावट और चुस्ती खत्म होने के डर से स्तनपान नहीं करातीं। डॉक्टरी सलाहों को दरकिनार करते हुए नवजात शिशुआें के मुंह में बाजारू दूध की निप्पल पकड़ा देती हैं। चाहे वह पश्चिम में बीकने वाला सुपरमार्केट का फॉर्मूला दूध हो,देशी डेयरी का दूध हो या फिर ग्वाला गद्दी का दूध। जो यह समझते हैं कि वह तो अपने बच्चों को नेशले जैसी बहुराष्टÑीय कंपनियों द्वारा उत्पादित शुद्ध दूध पिलाते हैं,वे गफलत में हैं। बाल रोगों पर रिसर्च करने वाली एक अंतर्राष्टÑीय एजेंसी ने इसी साल जून में जारी अपनी एक सर्वे रिपोर्ट में कहा है कि फॉर्मूला दूध पिलाने से दुनिया में हर साल 10 लाख शिशुओं की मौत हो जाती है। जबकि कुल संख्या के 10 फीसद बच्चे रिकेट्स,बेरी-बेरी और स्कर्वी जैसी सांस की दीर्धकालीन बीमारियों के चपेट में आ जाते हैं। जस्टस वॉन लिविग नामक जर्मन केमिस्ट ने 1867 में कृत्रिम दूध का फॉर्मूला खोजा था। यह फॉर्मूला उन्होंने नौकरीशुदा,पेशेवर और कामकाजी महिलाओं के लिए शिशु पुष्टाहार के एक विकल्प के तौर पर इजाद किया था। लेकिन बाद में नस्ले जैसी कंपनियों ने इसे व्यवसायिक फॉमूले में बदलकर दूध जैसे शिशु आहार को बाजार का उत्पाद बना दिया। इसके पक्ष में डाक्टरी सलाह दिलवाकर और महिलाओं की छाती की सुंदरता का विज्ञापन कर कंपनियों ने स्तनपान को गैर जरूरी साबित करते हुए दुनिया में ग्राहक और खूब पैसा बनाया। लेकिन सारे व्यवसायिक प्रयासों के बावजूद नतीजा यह है कि आज चिकित्सक माताओं के लिए शिशुआें को स्तनपान कराने की जरूरी सलाह देते हैं। डेयरी दूध की कहानी तो मिलावटखोर खुद कह रहे हैं। डेयरी कंपनियों फुल क्रीम,टोंड और डबल टोंड नाम से पैकेट दूध बेचती हैं। ग्राहकों ने हमेशा इनके उत्पाद शिकायत की है कि फुलक्रमी दूध में भी मलाई नहीं होता। टोंड और डबल टोंड तो पानी से अधिक और कुछ है ही नहीं। लेकिन वह भी गाढ़ा होता है,और गर्म करो तो छाली उसमें पड़ती है। ऐसा क्यों है। डबल टोंड दूध में मोटी छाली पड़ना ही इसकी गुणवत्ता पर सवाल पैदा करता है। सरकार ने हलफनामा के जरिये सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि फुड एंड सेफ्टी अथॉरिटी ने देश के विभिन्न हिस्सों से दूध के 1791 नमूने एकत्रित किये थे। इनमें से 1226 नमूने दूषित और घटिया किस्म के पाये गये। चौंकाने वाला तथ्य है कि दूध उत्पादन के नजरिये से संपन्न उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश के 88 प्रतिशत नमूने दूषित और घटिया पाये गये हैं। राजस्थान सरकार ने तो अभी तक सुप्रीम कोर्ट को अपना जवाब ही नहीं दिया है। अदालत ने मई महीने में ही प्रदेश सरकार से दूध में मिलावट पर जानकारी और इसे रोकने के उपायों के सुझाव मांगे थे। एक दो जगह की बात नहीं है। देश के सभी इलाके में नकली दूध की खबर आती रहती है। त्योहारी सीजन में मिलावट की घटनायें और सामने आती हैं। सरकारी एजेंसियां भी सक्रिय हो जाती हैं। छापेमारी होती है। लेकिन फिर वही का वही। सवाल यह है कि सबकुछ सामने आने के बाद भी इस धंधे पर रोक क्यों नहीं लग पाती। बच्चे दूध की खरीद-बिक्री के बारे में एक संघीय कानून है। कच्चे दूध की बिक्री का अधिकारी सभी को नहीं है। लगभग आधे प्रदेशों में तो राज्य का कानून है,जो सूचीबद्ध कुछ ही डेयरी कंपनियों और ग्वाला गद्दियों को कच्चे दूध बेचने की छूट देता है। लेकिन हकीकत यह है कि जिसकी मर्जी वही दूध खटाल लगाकर बैठ जाता है। इस अंधाधुंध व्यापार में पता मिलावटी दूध भी खप जाता है। लेकिन पराग डेयरी कोआॅपरेटिव फेडरेशन के क्वालिटी एस्युरेंस प्रभारी हंसवीर शर्मा का कहना है कि ऐसा नहीं है। दो बूंद चखकर दूध की शुद्धता और उसमें मिलावट का पता लगया जा सकता है। डेयरी कंपनियां तो बहुत परखकर किसानों से कच्चा दूध खरीदती हैं। जाड़े के दिनों में दूध का उत्पादन बढ़ जाता है। इस समय डेयरी कंपनियां दूध को -20 डिग्री पर जमाकर ह्वाइट बटर के रूप में रख लेती हैं। जब गर्मियों के दिनों में अचानक दूध उत्पादन घटने लगता है और शादियों का मौसम होने के चलते मांग बढ़ जाती है,तो उसी ह्वाइट बटर को पिघलाकर दूध की सप्लाई करते हैं। इसलिए डेयरी कंपनियों पर दूध में मिलावट का आरोप तो बेबुनियाद है। उनका कहना है कि सरकार ने फुड एंड सेफ्टी अथॉरिटी के जरिये दूध की सैंपलिंग कराती रहती है। मिलावटखोरी पर नियंत्रण के कदम उठाती रहती है। लेकिन यदि सैंपलिंग बढ़ा दी जाय तो इसका और फायदा हो सकता है। मिलावटखोरों की जहां तक बात है तो वे मिलावटी दूध देश में कम विदेशों में खासकर सोमालिया जैसे देश में अधिक सप्लाई करते हैं,जहां दूध उत्पादन बहुत कम है। उन्हें डॉलर में दूध की कीमत मिल जाती है। फायदा बहुत होता है। इसलिए उनका यह धंधा चलता है। सवाल यह है कि देश में यदि मिलावटखोरी का धंधा यूं ही चलता रहा तो क्या कैसे मान लें कि डेयरी कंपनियां और ग्वाला गद्दियां इसे बची रहेगीं।
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