रविवार, सितंबर 30, 2012

परिवार नामक संस्था को तोड़ने की साजिश

अमेरिका-यूरोप की महिलाएं रिश्तों में मनमानेपन से ऊब चुकी हैं,और लड़कियां भी यह सब देखकर डरने लगी हैं। सामाजिक रिश्तों पर नियंत्रण रखने वाला परिवार नाम की कोई संस्था नहीं बची है। वहां की लड़कियों को सामाजिक आर्थिक सुरक्षा का डर सताने लगा है। लेकिन भारतीय लड़के  परिवार नामक संस्था की पैदाइश हैं।   इसलिए वहां की लड़कियां यह सोचती हैं कि भारतीय लड़का कम से कम उसे सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा तो देगा। यही एक ऐसी थाती है हमारे पास, जो समाज को जोड़कर रखे हुए है। लेकिन इस पर भी पश्चिमी ताकतों की बुरी नजर पड़ गयी।


 महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ के प्रयास उनकी सोच की दिशा में रहे और संसद ने उनकी कागजी सोच पर मुहर लगा दी तो इस देश को एक ऐसा कानून मिल जाएगा,जो पत्नियों को अपने पतियों की तनख्वाह में तय हिस्से का अधिकारी बना देगा। महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में ऐसा सुनकर तो अच्छा लगता है,लेकिन इसकी व्यवहारिक सच्चाई भविष्य की भयावह तस्वीर खींचती है। भारतीय बहुसंख्यक समाज में,जहां पत्नी को अर्द्धांगिनी,गृहलक्ष्मी और मोटे अर्थाें में भी मालकिन कहा जाता है,पति की तनख्वाह में हिस्सेदारी का कानूनी अधिकार मिलने के बाद क्या उससे यह अधिकार छिन नहीं जाएगा? किसी को उसका हिस्सा देने के बाद भी कोई उसे मालकिन क्यों समझेगा। यदि मालकिन वाली भावना खतम हुई तो क्या पति पत्नियों को नौकरानी नहीं समझेेंगे,जो घर में काम-धाम करती है,बच्चों की देख-भाल करती है और उसके बदले उसे महीना दिया जाता है। सात जनम तो दूर, पति-पत्नी के एक जनम के रिश्ते के बीच भी यदि पैसे का कानूनी सवाल खड़ा किया गया,तो यह तय है कि छोटी-छोटी बातें बिगाड़ की वजह बनेंगी और फिर घरेलू हिंसा बढ़ेगी। फिर इस निर्माणाधीन कानून से उपजने वाली समस्याओं की सीधी टक्कर घरेलू हिंसा निषेध कानून से होगी।
              अब सवाल यह है कि यह आम आदमी को पता है,तो सरकार को पता नहीं होगा? सरकार को यह पता नहीं है कि पति-पत्नी के रिश्ते कितने प्रगाढ़ और कितने नाजुक होते हैं। फिर ऐसी सोच का क्या मतलब? यदि इस निर्माणाधीन कानून की केंद्रीय सोच महिलाआें को मर्दवादी सोच की जकड़न से मुक्त कराना ही है,तो फिर उन्हें सशक्त एवं स्वालंबी बनाने का उपाय तलाशना चाहिए। यह कई मायनों में ठीक है कि सरकार महिलाओं को सशक्त कर राष्टÑीय विकास में मानव संसाधन का इस्तेमाल करना चाहती है। इस बात से किसी को एतराज नहीं होना चाहिए कि पुरूषों की तरह ही महिलाओं को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए शिक्षा और रोजगार के समान अवसर मिलने चाहिए। सशक्तिकरण की मूल भावना यही है। लेकिन इसका उपाय यह नहीं है कि परिवार की एकमुश्त आमदनी का पति और पत्नी के बीच बंटवारा कर दिया जाय। एक तरफ  बाजारू व्यवस्था यह समझाने में लगी है कि स्वर्ग इसी जमीन पर है,जिसे पैसे से खरीदा जा सकता है। और इसलिए पैसा सबसे बढ़कर है। यही वजह है कि पैसा कमाने के लिए हर ओर लूट-मार मची हुई है। ऐसे में किसी को चुटकी बजाकर हजारों की रकम का हकदार बना दिया जाय,तो हकदार से इसके त्याग की अपेक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। ऐसे में पति-पत्नी के बीच जो तालमेल हर स्तर पर होता है,उसकी भी सोच बेमानी हो जाएगी। पत्नी अपने पैसे पर कानूनी हक जतायेगी। यदि पती की तनख्वाह में देरी हो जाती है या फिर किसी लेन-देने की वजह से महीने दो महीने पत्नी को उसके हिस्से की रकम नहीं मिल पाती है,तो मनमुटाव नहीं होगा। जाहिर है,होगा। पत्नी को जब एकमुश्त रकम मिलने लगेगी,तो वह भी अपना बजट अपने हिसाब से बनायेगी। फिर उस पर खर्च करने के लिए पैसे चाहिए। वह नहीं मिला तो बात बिगडेÞगी। इसके पीछे यदि सरकार की यही सोच है कि पत्नी अपने हिस्से की रकम से अपना काम पूरा करने के बाद जो रकम बचा के रखेगी,वह आखिरकार परिवार के काम ही आयेगी। तो इसमें नया क्या है कि कानून बनाना जरूरी हो गया। ऐसा तो अब भी हो रहा है। बल्कि अभी तो पत्नी पति के  वेतन पर पूरा हक जमा लेती है। महीना मिलते ही,पहली खरीद्दारी पत्नी की सौपिंग लिस्ट से होती है। बड़े कामों में भी पत्नी की सलाह अक्सर सबसे पहली और सबसे अहम होती है। कानूनी हक देने के बाद भी क्या पति पत्नी की सलाहों की ऐसी अहमियत समझेगा। क्या संयुक्त परिवारों में इस हक को मान्यता मिल पायेगी। ऐसे कई सवाल हैं,जो इस निमार्णाधीन कानून पर उठ रहे हैं। इनके संतोषजन जवाब दिये बिना यदि यह कानूनी हक पत्नियों को दे दिया गया तो इतना तय है कि एकल परिवारों में भी बिगाड़ बढेÞगी। परिवार टूटने और टूटकर विखरने लगेंगे। क्यों कि संयुक्त परिवार यदि टूटता है,तो कई एकल परिवार बनते हैं। यहां तक तो स्थिति परिवार की पश्चिमी परिभाषा के दायरे में रहती है,लेकिन जब एकल परिवार टूटेंगे,तो फिर वे किसी परिवार की परिभाषा से जुड़ेंगे। तो क्या ये मान लिया है कि कुलमिलाकर इस कानून की केंद्रीय सोच मर्दवादी संस्कृति की जकड़न से स्त्रियों को मुक्त कराना नहीं,बल्कि इसके बहाने परिवार के वजूद को खत्म करना है। ताकि इस सामाजिक संस्था की ताकत खत्म हो जाय। पुरूष और नारी दोनों ही सामाजिक रिश्ते,आचार,विचार,चाल,चरित्र के बारे में स्वच्छंद हो जायं। स्वतंत्रता में एक नियंत्रण होता है,स्वच्छंदता आदमी को लावारिश बना देती है। पश्चिम में इसका पूरा असर दिखने को मिल रहा है। अमेरिका,यूरोप में भारतीय लड़कों की मांग यूं ही नहीं बढ़ी है। इसकी वजहें हैं। अमेरिका-यूपरोप की महिलाएं रिश्तों में मनमानेपन से ऊ ब चुकी हैं,और लड़कियां भी यह सब देखकर डरने लगी हैं। सामाजिक रिश्तों पर नियंत्रण रखने वाला परिवार नाम की कोई संस्था नहीं बची है। वहां की लड़कियों को सामाजिक आर्थिक सुरक्षा का डर सताने लगा है। लेकिन भारतीय लड़के  परिवार नामक संस्था की पैदाइश हैं।   इसलिए वहां की लड़कियां यह सोचती हैं कि भारतीय लड़का कम से कम उसे सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा तो देगा। यही एक ऐसी थाती है हमारे पास, जो समाज को जोड़कर रखे हुए है। लेकिन इस पर भी पश्चिमी ताकतों की बुरी नजर पड़ गयी। वे चाहती हैं कि पूरब में महिलाआें को आगे बढ़ाने का ऐसा खेल खेला जाय कि परिवार नामक मजबूत संस्था ही बिखर जाय और फिर वे भी हमारी जमात में शामिल हो कर हमारे अनुचर बन जायं। हमारी वर्तमान सरकार ऐसा सोचती है या नहीं,लेकिन उसे यह बात तो पता ही होगी। इसके बावजूद ऐसा कानून बनाने पर सरकार अमादा है। तो नियत पर सवाल उठने ही चाहिए।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बधाई. अति सुन्दर. आपकी चिंता वाजिब है. यह बिल हमरे परिवार रूपी संस्था को तोड़ने की साजिश ही है.

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  2. बेनामी10/03/2012 4:53 am

    Dear Shasikant ji,
    Though western culture has its influence and affected the age-old Indian culture to a great extent, still Indian culture and the Indian Family System will thrive on.

    Patro

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