शताधिक वर्ष पुरानी हमारी पत्रकारिता दुनियां के कई क्षेत्रों में समय के साथ आए न जाने कितने तूफ़ान देखी है, इस बार भी आर्थिक दुनियां में आया तूफ़ान देख रही हैl फर्क बस इतना है कि इस बार के तूफ़ान की चपेट में वह ख़ुद चिकोहे खा रही है l आरोप की हवाओं के झोंके, आर्थिक मंदी के थपेड़े और हादसों की बरसातl असहनीय पीड़ा दे रहे हैंl इस पीड़ा से छटपटाते लोगों खासकर पत्रकारों को न सिर्फ़ पत्रकार समुदाय बल्कि सारी दुनिया देख रही हैl पर इस तूफ़ान के शिकार हो रहे लोगों को निराश होने की जरुरत नहीं हैl क्यों कि जीवन में परिवर्तन हमेशा बेहतरी के लिये ही आते हैंl ये सही है कि इस बार के तूफ़ान में कुछ 'यूकेलिप्टस' टूट जायेंगे कुछ 'दूबें' बच जाएँगीl यूकेलिप्टस को तो फिर भी कोई मोल लेगा लेकिन उन 'दूबों' का क्या होगा? जो हमेशा जूतों के निचे रौंदती रहती हैं ; पहले तो ये तूफ़ान में पड़कर पीली पड़ जाएँगी ; फिर यदि उठीं भी तो इस बात कि क्या गारेंटी कि ओ किसी जानवर का शिकार नहीं होंगी ; यूकेलिप्टस के बारे नहीं उन दूबों के बारे हमें सोचना है ; यदि इस सोच से इस तूफ़ान से लड़ा जाय तो तूफ़ान कदाचित जल्दी समाप्त हो सकता है ;