नई दिल्ली। ब्रिटिश राज में ब्रितानी प्रधानमंत्रली रैमजे मैकडॉनल्ड ने भारत की राज व्यवस्था में उठने वाली जिस मांग की पूर्ति ‘सांप्रदायिक अधिनिर्णय’ के रूप में की थी,उसकी परिणति अंततोगत्वा भारत के रक्तपूर्ण विभाजन के रूप में हुई। हजारों लाशों की कीमत पर इस बंटवारे को देख संविधान निर्मताओं ने राष्टÑीय एकता को उद्देश्यिका के उद्देश्य के रूप में रखकर षड्यंत्रकारी अंग्रेजों की दिमागी संतान ‘सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व’ के राक्षस को देश निकाला दे दिया। ताकि स्वतंत्र भारत में फिर से न ऐसी मांग उठ पाये और ना ऐसा राष्टÑदोही कार्य दोहराया जा सके। लेकिन स्वतंत्र भारत में 70 के दशक के आखिर में वोट की राजनीति शुरू हो गयी। सन 80 के आम सभा चुनावों में यह ‘राक्षस’ मुस्लिम अल्पसंख्यकों की आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग के नये रूप में फिर से अवतरित हो गया। कुछ सांविधानिक पूजा-पाठ के बाद अदृश्य हो गया। सांप्रदायिक मांगों की उठने वाली फटी आवाजों को छोड़ दें तो इस मायने में लगभग तीन दशक शांति रही। लेकिन कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार ने धार्मिक अल्पसंख्यक मुस्लिमों को ओबीसी कोटे में साढ़े 4 फीसदी आरक्षण का जो सबकोटा देने का फैसला किया है,उसमें सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के राक्षस की आहट सुनाई देने लगी है। देश का बौद्धिक तबका और मीडिया इसे सिर्फ राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अल्पसंख्यक तुष्टिकरण बता रहा है। हो सकता है, वोट की राजनीति की कई मजबूरियां होती हैं। लेकिन इसका मतलब यूपी में जनाधार खो चुकी कांगे्रस द्वारा प्रदेश के संन्निकट विधान सभा चुनावों में सिर्फ मतों का अंकगणित ठिक करने तक सीमित नहीं है। बल्कि काफी आगे बढ़कर उसी ‘राक्षस’ को न्योता देता है,जिसे संविधान के रचनाकारों ने देश निकाला दे दिया था।
कांग्रेस स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहती है और दक्षिणपंथी राष्टÑवादी दलों पर सांप्रदायिक होने और सांप्रदायिक फैलाने का आरोप मढ़ती है। दक्षिणपंथी पंथनिरपेक्षता को मानते हैं। धर्मनिरपेक्षता को गुमराह करने वाला पश्चिम से आयातित शब्द बताते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि भारत धर्म निरपेक्ष है। क्यों कि यहां कि संस्कृति धर्मनिरपेक्ष रही है। इसलिए भी शायद निर्मताओं ने संविधान में धर्म आधारित आरक्षण को निषिद्ध कर दिया है। इसका संबंध राजसत्ता की धर्म निरपेक्षता से है। जिस दिन से धर्म आधारित आरक्षण दिया जाने लगेगा भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान खोने लगेगी। लेकिन अपनी तो अपनी देश की पहचान की चिंता किये बिना कांग्रेस ने ऐसी शुरुआत कर दी है। आश्चर्यजनक यह है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया के ‘जाति तोड़ो’ के नारे की झंडावाहिनी समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस से चार कदम आगे बढ़कर इस आरक्षण को बढ़ाकर 18 फीसदी किये जाने की मांग कर दी है। पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का साफ कहना है कि यह मुस्लिम अल्पसंख्यकों की कुल आबादी के हिसाब उचित होगा। लालू यादव ने भी इसे सही बताया है। राम विलाश पासवान ने भी इसे एक सही कदम बताया है और वामपंथी दलों को भी यह रास आ रहा है। मुलायम सिंह ने 70 के दशक में मुस्लिमों के लखनऊ अधिवेशन से उठी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की मांग को ही दोहराया है। सबकोटे के औचित्य पर अंग्रेजी न्यूज चैनल टाइम्स नाऊ ने पिछले दिनों जो पंचायत बैठायी थी,उसमें मुस्लिम प्रतिनिधियों ने कांग्रेस की कदम को अपर्याप्त बताते हुए संख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व की आक्रामक मांग दो टूक शब्दों में दोहरा दी।
अपने वोट दांव पर लगाने वाले अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की राजनीति पार्टियों को अपने मूल संकल्प से काट देती है। लेकिन इसकी चिंता किये बिना मुलायम और लालू यादव मुस्लिमों को आरक्षण बढ़ाये जाने के लिए संविधान में संशोधन को भी कमर कस कर तैयार हैं। लेकिन उन्हें समझना होगा कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को आरक्षण देना संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में प्रत्याभूत समता के अधिकार का उल्लंघन होगा। ऐसा करने से समता के अधिकार में बसी राष्टÑीय एकता की भावना खंडित होगी। संविधान मर्मज्ञ डॉ डी डी बसु के मुताबिक धार्मिक अल्पसंख्यकों की ये मांगें विद्यमान संविधान के खिलाफ तथा सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णयों का अनादर करने वाली राष्टÑविरोध मांगें हैं। 80 में मुस्लिमों द्वारा उठायी गयी आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग के बाद सिक्ख,बौद्ध और इसाइयों ने भी ऐसी मांगें उठायी हैं। केरल और बिहार में मुस्लिम बहुत जिलों का निर्माण कर सरकारों ने आबादी के आधार पर अलगाववाद को ही स्वीकारा है। नियोगी कमीशन के संप्रेक्षण के हवाले उन्होंने कहा है कि यदि ऐसी मांगों को माना गया तो मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में दूसरा पाकिस्तान बनेगा,सिक्खों के लिए खालिस्तान बनेगा,बौद्धों के लिए बुद्ध गणतंत्र और इसाइयों के लिए इसाईस्तान बनेगा। इन्हें पूरा करने के लिए संविधान में इतने संशोधन करने पड़ेंगे कि सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा 60 सालों में समता के अधिकार के बारे में जितने सिद्धांत बनाये गये हैं,उनका अंतिम संस्कार हो जाएगा। और सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का वह राक्षस फिर से हमारे संविधान में जगह पा लेगा,जिसे निर्मताओं ने देश निकाला दे दिया था। उनका कहना है कि जो लागे धार्मिक अल्पसंख्यकों की लगातार बढ़ती मांगों को किसी भी रूप में स्वीकार करने को पंथनिरपेक्षता कहते हैं,उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि संसदीय लोकतंत्र में नेतृत्व करने वाले बहुमत के खिलाफ दूसरे धर्मों का पोषण करना सबसे उच्च कोटि की सांप्रदायिकता है। इसको समझने की जरूरत है। उस अर्थ में जिसमें कांग्रेसी अपनी पार्टी को 125 साल पुरानी बताते हैं। यानी यह वही पार्टी है,जिसके रहते देश का विभाजन हो गया। भाजपा ने संसद में कांग्रेस के इस कदम को संविधान के खिलाफ बताते हुए अपना विरोध जता दिया है और संड़क पर भी इसका खुला मुखालफत करने का ऐलान किया है। अब देखना यह है कि कांग्रेस द्वारा छोड़ा गया धार्मिक आरक्षण का यह कबूतर सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के राक्षस को न्योता दे आता है या सांप्रदायिकता की विरोधी राष्टÑवादी ताकतें इसके पर काटने में कामयाब हो जाती हैं।
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