मंगलवार, जनवरी 03, 2012

सवाल भारत रत्न का या सम्मान का

 भारत रत्न और उसके लायकों पर सरकार मत्थापच्ची कर रही है। खेल-खिलाड़ियों को इस सम्मान के दायरे में लाने के लिए सरकार ने नियमों में संशोधन भी कर दिया है? लेकिन यह क्या उचित है। इसके औचित्य-अनौचित्य पर प्रकाश डालता पुण्य प्रसून बाजपेयी का ब्लॉग।
                                                                                                                                                                                                                  भारत रत्न के दायरे में खेल-खिलाड़ी आ जायेंगे यह कभी सोचा नहीं गया। लेकिन कला-संसकृति, साहित्य और समाजसेवा से लेकर स्टैट्समैन की कतार में अब अगर खिलाडि़यों की बात होगी तो इसके संकेत साफ हैं कि आने वाले दौर में बाजारवाद की लोकप्रियता भी भारत रत्न की कतार में नजर आयेगी। तो क्या भारत रत्न की जो परिभाषा आजादी के बाद गढ़ी गई अब उसे बदलने का वक्त आ गया। क्योंकि खेल को कभी राष्ट्रवाद या राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा नहीं गया। संघर्ष और कला के मिश्रण में ही हमेशा भारत रत्न की पहचान खोजी गई। जबकि खेल के जरिए भारत को दुनिया में असल पहचान हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने ही पहली बार दी थी।

1936 में बर्लिन ओलंपिक में हिटलर के सामने ना सिर्फ जर्मनी की हॉकी टीम को 8-1 से पराजित किया, बल्कि उस दौर में दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर के सामने खड़े होकर तब उन्हें भरतीय होने का एहसास कराया, जब हिटलर से आंख मिलाना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती थी। ध्यानचंद ने हिटलर की उस फरमाइश को खारिज कर दिया जिसमें हिटलर ने ध्यानचंद को भारत छोड़ कर्नल का पद लेकर जर्मनी में रहने को कहा था। लेकिन, ध्यानचंद उस वक्त भी भारत को लेकर अडिग रहे और अपने फटे जूते और लांस-नायक के अपने पद को बतौर भारतीय ज्यादा महत्व दिया। इतना ही नहीं आजादी से पहले देश के बाहर देश का झंडा लेकर कोई शख्स गया था तो वह ध्यानचंद ही थे। ओलंपिक फाइनल में जर्मनी से भिड़ने से पहले बकायदा टीम के कोच पंकज गुप्ता, कप्तान ध्यानचंद के कहने पर कांग्रेस का झंडा हाथ में ले कर जर्मनी की टीम को पराजित करने की कसम खायी। लेकिन भारत रत्न की कतार में कभी ध्यानचंद को लेकर सोचा भी नहीं गया।


हालांकि इस कड़ी में नायाब हीरा शहनाई वादक बिसमिल्ला खान भी हैं। जिनकी शहनाई सुनकर एक बार अमेरिका ने उन्हें हर तरह की सुविधा देते हुये अमेरिका में रहने की फरमाइश कर डाली थी। और कहा कि बिसमिल्ला खान जो चाहेंगे वह अमेरिका में मिलेगा। लेकिन तब बिसमिल्ला खान ने बेहद मासूमियत से यह सवाल किया था, 'गंगा और बनारस कैसे लाओगे। इसके बगैर तो शहनाई ही नहीं।' हालांकि बिसमिल्ला खान को भारत रत्न से जरूर नवाजा गया। लेकिन अब जब भारत रत्न के घेरे में खेल-खिलाड़ी को लेकर सरकार ने कवायद शुरू की है तो देश में खेल की दुनिया के सबसे बडे ब्रांड सचिन तेदुलकर को लेकर भारत रत्न चर्चा शुरु हो चुकी है। और इस कतार में लता मंगेश्कर से लेकर अन्ना हजारे और दर्जनों सांसद हैं जो बार-बार सचिन का नाम लेकर भारत रत्न देने की बात खुले तौर पर कह रहे है। समान्य तौर पर यह बहस हो सकती है कि सचिन तेंदुलकर से बड़ा नाम इस देश में और कौन है जिसने इतिहास रचा और अब भी मैदान पर है।

हालांकि चर्चा इस बात को लेकर भी सकती है कि सचिन ने देश के लिये किया क्या है। खिलाड़ी की मान्यता के साथ ही खुद को बाजार का सबसे उम्दा ब्रांड बनाकर सचिन की सारी पहल देश के किस मर्म से जुड़ती है यह अपने आप में सवाल है। लेकिन जब भारत रत्न का कैनवास बड़ा किया ही गया है तो कुछ सवाल भारत रत्न को लेकर इससे पहले की सियासत को लेकर भी समझना जरूरी है। 1954 में शुरू हुई उस परंपरा में यानी बीते 57 बरस में चालीस लोगों को इस सम्मान से नवाजा गया। लेकिन भारत रत्न से सम्मानित होने की सियासत पहले तीन भारत रत्न के बाद से डगमगाने लगी। 1954 में सबसे विशिष्ट नागरिक अलकरण भारत रत्न से उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, पूर्व गवर्नर राजगोपालाचारी और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकटरमन को सम्मानित किया गया। लेकिन अगले ही बरस यानी 1955 में भारत रत्न के लिये प्रधानमंत्री कार्यालय से जो चौथा नाम निकला वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु का था। यानी खुद के बारे में खुद ही सबसे बड़े नागरिक अलंकरण से सम्मानित होने की यह पहली पहल थी। इसके बाद इसका दोहराव 16 बरस बाद 1971 में इंदिरा गांधी ने किया। जब एक बार फिर पीएमओ से जो नाम भारत रत्न के लिये निकला उसमें खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ही नाम था।

दरअसल सत्ता की महक कैसे भारत रत्न के जरिए अपनी अहमियत बताती है यह 1991 में कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलाते चद्रशेखर ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भारत रत्न से सम्मानित करके दिया। प्रधानमंत्रियों की फेरहिस्त में नेहरु, इंदिरा और राजीव के अलावे दो ही प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई हैं जिन्हें भारत रत्न से नवाजा गया। जाहिर है इस दौर में बीजेपी बार-बार भारत रत्न के लिये अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेती है, लेकिन समझना होगा की सत्ता कांग्रेस की है। जब वाजपेयी सत्ता में थे तो अपने छह बरस के दौर में छह लोगो को भारत रत्न दिया। जिसमें 1999 में जयप्रकाश नारायण, गोपीनाथ बरदोलई, रविशंकर, अमर्त्य सेन और 2001 में लता मंगेश्कर और बिसमिल्ला खां को भारत रत्न से नवाजा गया। लेकिन जब से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब से कोई नाम भारत रत्न के लिये के लिये नहीं उभरा। अब यहां सवाल सचिन तेंदुलकर का उठ सकता है। क्योंकि मनमोहन सिंह का मतलब अगर आर्थिक सुधार के जरिए भारत को बाजार में तब्‍दील करना है तो सचिन का मतलब उस बाजार का सबसे अनुकूल उत्पाद होना है।

सचिन को क्रिक्रेट ने बनाया और देश के उन 27 उत्पाद को सचिन तेदुलकर ने पहचान दी जिनके ब्रांड एंबेसडर सचिन तेदुलकर बने। इस वक्त देश में तीस लाख करोड़ के धंधे के सचिन तेदुलकर अकेले ब्रांड एम्‍बेसडर हैं। यानी जो पहचान देश के क्रिक्रेट खिलाड़ी होकर सचिन ने पायी उसकी रकम वह सालाना करोड़ों में बतौर खुद के नाम और चेहरे को बेचकर कमाते हैं। जिन उत्पादों का वह गुणगाण करते हुये नजर आते हैं उनमें से नौ उत्पाद तो देश के हैं भी नहीं, बाकि 18 उत्पादों का काम खुद को बेचकर मुनाफा बनाने से इतर कुछ है नहीं। लेकिन इसमें सचिन तेदुलकर का कोई दोष नहीं है। अगर इस दौर में देश का मतलब ही बाजार हो चला है। अगर विकास का मतलब ही शेयर बाजार और कारपोरेट तले औद्योगिक विकास दर के स्तर को उपर पहुंचाना है, तो फिर बतौर नागरिक किसी भी सचिन तेंदुलकर का महत्व होगा कहां। असल और सफल सचिन तो वही होगा जो उपभोक्ताओ को लुभाये। जो अपने आप में सबसे बड़ा उपभोक्ता हो। इसलिये क्रिकेट का नया मतलब मुकेश अंबानी और विजय माल्या का क्रिक्रेट है। वो क्रिकेट जिसमें शामिल होने के लिये वेस्टइंडीज के क्रिक्रेटर क्रिस गेल अपने ही देश की क्रिक्रेट टीम में शरीक नहीं होते। पाकिस्तान के क्रिक्रेटर भारत के कॉरपोरेट क्रिक्रेट में शामिल ना हो पाने का दर्द खुले तौर पर तल्खी के साथ रखने से नहीं कतराते। और सचिन तेंदुलकर भी भारतीय क्रिक्रेट टीम में शामिल होकर 20-20 खेलने के जगह कॉरपोरेट क्रिक्रेट की 20-20 में शरीक होने से नहीं कतराते।

अगर ध्यान दीजिये तो भारत रत्न की कतार में कॉपोरेट घरानों में सिर्फ जे. आर. डी. टाटा को ही यह सम्मान मिला है। लेकिन अब के दौर में जे. आर. डी. टाटा से कहीं आगे अंबानी बंधुओं समेत देश के टॉप पांच उद्योगपति आगे पहुंच चुके हैं। दुनिया में भारतीय कारपोरेट की तूती बोलने लगी हैं। चार कॉरपोरेट ने तो इसी दौर में मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार तले इतना मुनाफा बनाया कि जे. आर. डी. के दौर में जो विकास टाटा ने आजादी के बाद चालीस बरस में किया उससे ज्यादा टर्न ओवर सिर्फ सात बरस में बना लिया। लेकिन देश से निकल कर खुद को बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर मान्यता पाने वालो में से किसी का नाम भारत रत्न की दौड़ में नहीं हैं।

यह कमाल अब की अर्थव्यवस्था का ही है कि देश के बीस करोड़ लोग एक ऐसे बाजार के तौर बन चुके हैं जिनके जरिए अमेरिका और चीन जैसे शक्तिशाली देशों से भी भारत कूटनीतिक सौदेबाजी करने की स्थिति में है। और जी-20 से लेकर ब्रिक्र्स और एशियन समिट से लेकर जी-8 में भी भारत के बगैर आर्थिक विकास की कोई चर्चा पूरी नहीं होती। जबकि इसी दौर में देश में जो की जो पीढ़ी युवा हुई उसके लिये आजादी के संघर्ष का महत्व बेमानी हो गया। ना गालिब का कोई महत्व इस दौर में बचा ना भगत सिंह का। और खेल-खिलाड़ी को भारत रत्न के दायरे में लाने पर अगर ध्यानचंद के साथ सचिन तेंदुलकर का नाम ही सत्ता की जुबान पर सबसे पहले आया तो फिर इस बार भारत रत्न का सम्मान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही क्यों नहीं मिलना चाहिये जिनके विकास की चकाचौंध जमीन पर सचिन सिर्फ एक ब्रांड भर हैं, जबकि मनमोहन सिंह की तो समूची बिसात है। फिर प्रधानमंत्री रहते हुये मनमोहन सिंह का नाम अगर भारत रत्न के लिये आयेगा तो यह नेहरु और इंदिरा की कड़ी को ही आगे बढायेगा।


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