बुधवार, जनवरी 04, 2012

अन्ना आंदोलन का अवमूल्यन


ठेठ देहात का किसान अपनी परती जमीन को भी खून-पसीने बहाकर फाड़ता(जोतता) है। इसमें बीज डालता है। जेठ की दोपहरी हो चाहे पूस की रात,फसलों की देखभाल करता है। फसल से अनाज निकालता है। खेत की फसल से निकले अनाजों की खलिहान में ढेरी लगती है,तो किसान उसमें अपनी सारी मेहनत-परेशानी का परिणाम देखता है। लेकिन व्यवस्था की सच्चाई भी उसे मालूम होती है। इसलिए मन मसोसकर वह खून-पसीने से उगाई गयी फसल को कौड़ी के भाव बनिये के बोरे में बंद करवाने के लिए मजबूर होता है। बिहार के किसी खलिहान में लगी धान की ढेरी आठ रुपये प्रति किलो के हिसाब से बनिया के बोरे में चली जाती है। उसी धान से बना चावल पटना में 20 रुपये और दिल्ली में 30 रुपये किलो बिकता है। बिहार के खेतों से दो-तीन रुपये किलो के हिसाब से टूटी सब्जि पटना में 20 रुपये किलो और दिल्ली में 15 रुपये पाव बिकती है। किसान के खेत से दाल ढाई से तीन रुपये किलो उठती है और बिचौलियों के कई बोरे में रगड़ाते-पटकाते हुए दुकानों पर आती है,तो उसकी कीमत 90 रुपये किलो हो जाती है। अपने खेतों से दो-तीन रुपये किलो में सब्जी बेचने वाला किसान जब पटना,लखनऊ, दिल्ली में 20 रुपये किलो और 15 रुपये पाव खरीदता है,तो उसका माथा ठनक जाता है। वह महंगाई-महंगाई चिल्लाता है,तो सत्ता से बाहर के राजनीतिक दलों को सड़कों खड़ा होने का एक मुद्दा मिल जाता है। महंगाई पर संसद में 12 बार बहस हो चुकी है। हर बार सरकर ने लाचारी ही जाहिर की है। लेकिन प्रधान मंत्री ख्ुाद को लाचार और कमजोर कैसे बताते। हर बार उन्होंने खुद को कमजोर मानने से इनकार कर दिया। महंगाई को कम करने का आश्वासन दिया। लेकिन यह कहते हुए समयसीमा तय करने से कतराते रहे कि वे कोई ज्योतिषि नहीं हैं,जो निश्चित अवधि बतायेंगे। सिविल सोसाइटी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल कानून की मांग को लेकर अन्ना की अगुवाई में आंदोलन छेड़ा,तो सरकार ने कह दिया कि यह संसद की सर्वाच्चता को चुनौती है। यदि इस देश की संप्रभु जनता संविधान के मर्यादाआें में रहते हुए अपने हक की आवाज उठाती है,तो सरकारी भाषा में यह संसदीय सर्वोच्चता को चुनौती है। लेकिन सरकार जब जो चाहे कर ले तो वह संविधान की मर्यादाओं का पालन है। 123 डील के लिए सरकार ने संसद में जो नहीं करना चाहिए,वह कर लिया। सांसदों का वेतन बढ़ाने के लिए सदन की आम राय बन गयी। एफडीआई के लिए सरकार ने जोर लगा दिया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की बिना मुकम्मल तैयारियों के सरकार खाद्य सुरक्षा अधिनियम ले आयी। ये ऐसे मौके हैं,जब सरकार ने संसद की प्रासंगिकता को कठघरे में खड़ा कर दिया। इन मौकों को सामने रखकर देखें तो सरकार का यह कहना कि टीम अन्ना संसद की सर्वाेच्चता को चुनौती दे रही है,शायद लोकतंत्र का बहुत बड़ा झूठ लगता है। सरकार भले ही यह कहे कि उसने तो अन्ना आंदोलन के मूल्य को समझा और अपने वायदे के मुताबिक लोकपाल बिल ले भी आयी,लोकसभा में पारित भी करा दिया। लेकिन राज्य सभा में बहुमत नहीं होने के कारण बिल पास नहीं  हो पाया। सरकार यह भी भले ही कहे कि उसने अपना वादा पूरा किया लेकिन विपक्षी पार्टियां खासकर भाजपा ने अन्ना की मांग पूरा करने के लिए संसद में सरकार का साथ नहीं दिया। लेकिन यह साफ उपर बिनाये गये मौके और राज्य सभा में लोकपाल पर विपक्ष के तीन मोटे संशोधन मानने से इनकार करने तथा  वोटिंग से इनकार करने की घटना ख्ुाद सरकार के बात को काटेंगे। सरकार मुंह से चाहे जो भी कह ले,राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं दिखाकर मन से अन्ना के आंदालेन का अवमूल्यन किया है। यह तो सरकार द्वारा बड़ी चालाकि से किया गया है,अवमूल्यन है।
 जनलोकपाल के लिए एक अभियान से शुरू हुआ अन्ना के आंदोलन ने भेद-भाव,जातिवाद और वर्गभेद से परे भारतीय युवाआें में एक नयी उर्जा का समावेश किया है। चेतना का विस्फोट हुआ है। यह सब एक थोड़े समय में ही ऐसे हो गया,जैसे जादू। इसकी जड़ में वह मुद्दा है,जो अन्न की टीम ने बड़ी सहजता से उठाया। भ्रष्टाचार। आज भारतीय समाज की ऐसी समस्या है,जिससे हर स्तर पर अधिकाधिक जनता त्रस्त है। चाहे वह किसी भी जाति,वर्ग की हो। अन्ना की टीम ने जब जनलोकपाल के लिए अभियान छेड़ा था,तो सबकी मांग सिर्फ जनलोकपाल थी। आरक्षण इसके आडेÞ आ जायेगा और इसकी बिसात पर राजनीतिक चालें चलने लग जाएंगी,ऐसा तब किसी ने सोचा नहीं था। लेकिन दलित और अल्पसंख्यक वर्ग के बौद्धिकों ने आखिरकार यह मांग उठा ही दी। इसकी आवाज संसद में गुंजने लगी। मांग बौद्धिकों ने खुद उठायी या राजनीति दलों की इसके पीछे कोई पे्ररणा थी। यह भी अभी साफ नहीं हो पाया है। लेकिन यह साफ हो गया है कि आरक्षण ने संसद में लोकपाल की किरकिरी करवा दी और राज्यसभा में सरकार द्वारा स्क्रिप्टेड जिस नाटक का मंचन हुआ,उसमें यह देखा गया कि राजद के राजनीति प्रसाद ने लोकपाल बिल की प्रति तक फाड़ डाली। आरक्षण के मोर्च पर दलित और अल्पसंख्यक अन्ना के इस आंदोलन को सवर्ण मानसिकता से जोड़कर देख और कह रहे हैं।
 जबकि अन्ना की टीम में खुद दलित और अल्पसंख्यक सदस्य हैं। अब दलित यह कहने लगे हैं कि उपनिवेशवाद और भ्रष्टाचार दोनों एक दूसरे से अलग हैं। भ्रष्टाचार का   विरोध करना उपनिवेशवाद का विरोध करना नहीं है। अन्ना हजारे केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के नेता बनकर उभरे हैं। इसलिए उन्हें उपनिवेशवाद का विरोधी नहीं मिला जाएगा। उन्होंने कारेपोरेट द्वारा संचालित लोकतंत्र के खिलाफ अब तक चुपी साध रखी है। कारपोरेट लूट का हल्ला मचाने वाले वामपंथियों और माओवादियों ने मीडिया और कारपोरेट को लोकपाल के दायरे में लाने लाने की आवाज उठायी थी। टीम अन्ना ने कभी इसका विरोध नहीं किया। अन्ना की मांगों का स्वागत और दलित,अल्पसंख्यक के आरक्षण पर विरोध। विरोध में मोर्चे पर दलित और माओवादियों का परोक्ष एका बन गया। अंबेडकरवादियों ने अन्ना का विरोध भी करावाया। लेकिन क्या करें इतना भारी जनसमर्थन था कि उनका विरोध दब गया। इन्हीं विरोधों से सरकार को राजनीति ड्रामा का स्क्रिप्ट लिखने की आइडिया मिली। सरकार ने वह सबकुछ अपने मनमुताबिक कर लिया,जिसे कई विपक्षी पार्टियां(उनके सदस्य) राज्य सभा के बाहर निकलते हुए लोकतंत्र की हत्या करार दे रही थीं। सरकार ने कई मोर्चे पर अन्ना के आंदोलन को राजनीति करार देकर इस जनआंदोलन का अवमूल्यन किया। कांग्रेस ने अन्ना का संबंध संघ से निकालने के लिए कई प्रयास किये। यहां तक कि एक समाचार पत्र का भी इस्तेमाल किया। लेकिन विफल रही। यदि भारत के संसदीय लोकतंत्र में, जहां संसद प्रभुता और न्यायिक सर्वाेच्चता के सामने जनता के मूल अधिकारों की मर्यादा एक बैरियर की तरह खड़ी है,वहां जनआकाक्षांओं को दबाना,अपने हक की मांग के लिए रात दिन सड़कों पर पड़ी जनता की भावनाओं का राजनीतिक तरीके से अनादर करना,एक जनांदोलन का अवमूल्यन नहीं तो और क्या है। अन्ना ने यदि कह दिया कि वे पांच राज्यों के आगामी विधान सभा चुनावों में कांग्रेस नीत सरकार के खिलाफ प्रचार करेंगे तो इसमें क्या बुराई है। जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है। उसे अपना नेता बनाने का भी पूरा अधिकार है। उसने अपना नेता बना लिया है। वह अब अपने नेता के निर्देश के अपने मतों का इस्तेमाल करेगी। इसमें किसी पार्टी की नाराजगी नहीं होनी चाहिए। राजनीति का इस्तेमाल यदि समाज को सही दिशा ना देकर जनहितों को दबाने के लिए किया जाएगा तो निश्चित रूप से जनता शिक्षक की भूमिका में आकर राजनीति को नये सिरे से परिभाषित करेगी। क्यों कि राजनीति असल मायने में शिक्षक का ही काम है। खुशी इसबात की होनी चाहिए कि इस देश की जनता अन्ना के आंदोलन से जागरूक हो रही है और अपना शिक्षक खुद बन रही है।

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