मंगलवार, फ़रवरी 28, 2012

सांसदों की गंभीरता पर सवाल


अरविंद केजरीवाल ने ‘संसदीय चरित्र को बदलने’ की जो बात कह दी है,उससे लोकतंत्र और शानदार संसदीय परंपरा को भले ही ठेस पहुंच हो,लेकिन उनके एक बयान पर सांसदों की झल्लाहट ने स्वयं उनकी  ही गंभीरता पर सवाल खड़े कर दिये हैं। सवाल यह कि क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में शानदार,भव्य एवं शालीन संसद के सदस्यों की गंभीरता खत्म हो गयी है? जनप्रतिनिधियों की लाखों जनता के प्रतिनिधियों की सहिष्णुता का स्तर इतना गिर चुका है कि केजरीवाल जैसे समाजसेवी के बयान को वे नहीं संभाल पा रहे हैं? यदि ऐसा है तो वास्तव में सोचना होगा कि हमारी भव्य संसद की शानदार एवं शालीन परंपना का वे कैसे निर्वाह कर पायेंगे।
                                           केजरीवाल के बायान पर राजनीतिक दलों के कुछ नेताओं का संसदीय बयान तो समझ में आ रहा है। लेकिन लालू यादव ने केजरीवाल के बयान पर अन्ना को निशाने पर लेकर यह संकेत कर दिया कि इस उनका मतलब वाकई एक बार फिर लोकपाल बिल को ‘डंप’ करना था। यदि लालू ने यह कहा है कि ‘रोटी जल गयी तावा में,अन्ना उड़ गये हवा में’ तो इसका मतलब क्या समझा जाय? इसका मतलब तो पहली नजर में यही निकलता है कि आप उसे(अन्ना हजारे) हवा में उड़ाने के तत्पर के थे,जो इस देश की 121 करोड़ जनता की मांग सरकार और संसद के  सामने लोकतांत्रिक तरीके से रख रहा था।  मुलायम चुकि उत्तर प्रदेश चुनावों की गणित में उलझने के कारण और कुछ उल्टा हो जाने के डर से केजरीवाल को ‘काउंटर’ नहीं कर पाये। ये वे भी लालू जैसा खाली होते तो एसी चेंबर में बैठकर ‘जनहित का पाठ’ करते और कुछ ऐसा बोलते जो केजरीवाल के खिलाफ होता है,और वास्तव में जन असंतोषों के खिलाफ होता। जैसे यदि अरविंद केजरीवाल ने यह कह दिया कि लालू और मुलायम जैसे नेता जब तक संसद में रहेंगे तो तब तक कोई ऐसा कानून नहीं बन पायेगा जो भ्रष्टाचार मिटाने में कारकर हो। मतलब साफ था कि लालू और मुलायम लोकपाल कानून नहीं बनने देना चाहते हैं। लालू ने बयान देकर इशारे में बता दिया भी दिया कि हां,उनका ईरादा अन्ना को हवा में उड़ाने का ही था। इस बात को उन्हें समझना चाहिए,जो केजरीवाल के बायान को लोकतंत्र और संसदीय परंपरा पर ठेस पहुंचाने वाला बताकर उसे कोस रहे हैं। उन्हें यह भी समझना चाहिए कि ऐसे सांसद जो जनताआकांक्षओं का प्रतिनिधित्व तो दूर जनता की मांगों को कुचलने की राजनीति करते हैं,उन नेताओं का ‘महिमामंडन’ कोई किन शब्दों में करे। केजरीवाल ने अपने बयान में उन सांसदों की संख्या भी बताया जो दागी हैं। मौजूदा संसद में दागी सांसदों की संख्या सैकडों में है। यदि इन सांसदों को कोसना होगा,तो कोई इनके लिए कैसे शब्दों का चयन करे। राजनीतिक दलों की यह प्रतिक्रिया कि केजरीवाल को ऐसा नहीं कहना चाहिए,ठिक है। इस देश के एक नागरिक के नाते संविधान,लोकतंत्र और संसद का सम्मान हमारी फर्ज है। इसे निभाना चाहिए। लेकिन,जब पानी सिर से ऊपर हो जाता है,तो झल्लाहट में ऐसी बातें निकल जाती हैं। केजरीवाल के बयान पर एक राजनीति दल ने कहा है कि वह संसद के आने वाले सत्र में विशेषाधिकार हनन नोटिस लायेगी। यह सही है,यदि उनके विशेषाधिकारों का हनन होता है,तो उन्हें ऐसा नोटिस लाना भी चाहिए। लेकिन सवाल है कि सांसद अपने विशेषाधिकारों को लेकर इतना सचेत हैं, तो फिर वे जनता की आवाज क्यों नहीं सुनते? पारदर्शी शासन व्यवस्था किसी एक व्यक्ति की मांग नहीं,बल्कि संविधान का संवैधानिक लक्ष्य है। लेकिन आज देश में भ्रष्टाचार के घनचक्कर में आम जनता पीस रही है। भ्रष्टाचार से त्रस्त यही जनता दशकों से लोकपाल कानून बनाने की मांग कर रही है। कानून जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाआें को पूरा करने वाला होना चाहिए। लेकिन सरकारें आती हैं,चली जाती है,अपनी मर्जी से कानून बनाती हैं,जनता पर थोप जाती हैं। लेकिन लोकपाल क्यों नहीं बन पाता। इस बार सरकार ने लोकपाल कानून पर जो नाटक किया। उससे तो इस देश की जनता चकित है। अरविंद केजरीवाल ने कहा कि भ्रष्टाचारी नेता नहीं चाहते कि लोकपाल जैसा कानून बने,नहीं तो सबसे पहले वही जेल जाएंगे। यदि अपने ऊपर कीचड़ उछाले जाने से वे इतने ही डरते हैं,वे इतना ही वे भ्रष्टाचार से क्यों नहीं डरते। राजनीतिक दल ऐसे बयानों को संविधान,लोकतंत्र और संसद के खिलाफ मानते हैं,तो उन्हें ऐसा राजनीति में भी अपनी यही सोच दिखानी चाहिए। साफ-सूथरी छवि वाले लोगों ही दल में शामिल करना चाहिए,ताकि उनका बखेड़ा ना बनाया जा सके। इस देश की जनता की गाढ़ी कमाई से अर्जित खजाने का मालिक बनकर बैठा एक मंत्री यह कह देता कि वह गोदामों में पड़े अनाज को डंप कर देगा,लेकिन जनता को मुफ्त में नहीं बांटेगा। सरकार,राजनीतिक दल और उनके नेताओं को यह बयान चाहे जैसा लगे जनता को आज भी साल रही है। इसे लोकतंत्र के खिलाफ नहीं माना जाता,लेकिन जब जनता दागी नेताओं पर उंगुली उठाती है,तो सरकार, मंत्री और नेता इसे लोकतंत्र के खिलाफ और भड़काऊ बताने लगते हैं। कितना विडंबनापूर्ण है यह सब। राजनीति दल चाहे जो कहें,अरविंद केजरवाल को भले ही सच का सामना करना पड़े। लेकिन इतना तो है कि शालीनता से राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी   नेता,मंत्री एवं नौकशाह तथा क र्मचारी के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए। एक ऐसे कानून के लिए सरकार पर लगातार दबाव बनायी जानी चाहिए,जिससे जनता को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल सके। यदि हमारे जनप्रतिनिधियों को जनता की ऐसी तीखी टिप्पड़ी सुनने की क्षमता नहीं है,और इस पर साफ-सूथरी बहस करने का माद्दा नहीं है,तो उन्हें नैतिकता के आधार पर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहिए।

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